Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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I
विगलित होने लगीं । अज्ञानताके कारण जो गुण अच्छादित थे, वे शनैः शनैः उद्घाटित होने लगे । उसे अपने पूर्व जन्मोंकी स्मृति आ गयी और विगत जन्म उसे दर्पण में पड़नेवाले प्रतिबिम्बके समान स्पष्टतः दिखलायी पड़ने लगे। आत्माकी वाणीको आत्माने समझा; आध्यात्मिकता और अहिंसा-संस्कारोंने सिंहके ज्ञाननेत्रोंको खोल दिया । वह पूंछ हिलाता हुआ योगिराजके समक्ष नतमस्तक हो गया। उसकी भावभंगिमासे यह प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ रहा था कि उसे अपने पूर्वकृत कार्योंपर पश्चात्ताप है और अब अपने उत्थानके लिये वह कृतसंकल्प है।
आचार्य अजित सिंहकी इस भाव-विभोर अवस्थाको देखकर कहा" मृगराज ! घबंडाओ नहीं । तुम्हारी आत्मा अनन्त ज्ञानवान् और शक्तिशाली है। यदि तुम आत्म-निष्ठापूर्वक हिसाका त्याग कर अहिंसाका आचरण करोगे, तो तुम्हारा उद्धार सम्भव है । विदेहस्थ तीर्थंकर श्रीधरने समवशरणमें कहा है कि अबसे तुम दशवें जन्ममें भरतक्षेत्र के अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगे । संयम, तप और त्याग मनुष्य तथा पशु दोनोंके लिये प्रायः समानरूपसे उपकारक हैं । यदि तुम अपनी वृत्तिको अहिंसक बना सकते हो. तो तुम्हारे उद्धार में बिलम्ब नहीं है ।"
मुनिराज उक्त उपदेश देनेके पश्चात् विहार कर गये। उस सिंहने अपने जीवनकी आलोचना की और संयम ग्रहण कर लिया । उसने मांसाहारका त्याग कर सल्लेखना धारण की। मनुष्य और पशुओं के उपसर्ग एवं यातनाओंको समताभावसे सहा और प्राणविसर्जनकर सोधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नामका देव हुआ । धर्मका फल ऐश्वर्य होता देखकर वह धर्मपुरुषार्थ में लीन हो गया । वह प्रतिदिन अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर अत्प्रतिमाओं की दिव्य पूजा-अर्चा करता । नन्दीश्वरादि द्वीपोंमें भावविशुद्धि के हेतु जिन प्रतिमाओंकी पूजा एवं गुरुमोंके उपदेशका श्रवण करता । एक दिन अजितञ्जय गुरुका उसे दर्शन हुआ । वह विनीत रूपमें निवेदन करने लगा - "गुरुदेव ! आपके वर्मोपदेशको प्राप्त कर में कृतकृत्य हो गया और अब स्वर्ग-सुख भोग रहा हूँ । आपके उपदेशने मेरे ज्ञान- वक्षुओंका उन्मीलन कर दिया है। मुझे संयम और साधनामें ही सुख दिखलायी पड़ता है । पर यह देवगति भोगयोनि है। यहाँ वीतरागताकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । ऐसा उपाय बतलाइये, जिससे मेरा संकल्प पूरा हो सके।"
गुरु - " वत्स ! इस देवगतिमें देव, गुरु और शास्त्रकी भक्ति सुखपूर्वक की जा सकती है । सन्यग्दर्शनकी उपलब्धि भी यहाँ संभव है। तुम भक्ति और श्रद्धा द्वारा अपने सम्यक्त्वको निर्मलकर आत्मोत्कर्षं कर सकते हो ।"
४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा