Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अप्येकः क्षुधितं भिक्षु शुनि दशति लूषकः।।
तत्र मन्दा विषीदन्ति तेजः स्पृष्टा व माणिनः ॥८॥ अन्वयार्थः--(अप्पेगे) अप्येकः (लूमए) लूषकः क्रूरः (खुधियं) क्षुधितं बुभु. क्षित भिक्षामटन्तं (भिक्खु) भिक्षुम् (सुनीदंशति) शुनी दाति भक्षयति (तत्थ) तत्र-श्वादिभक्षणे (मंदा) मंदा:-अज्ञाः अल्पसत्त्रतया (विसीयंति) विपीदन्तिदैन्यं भजन्ते (तेउपुट्टा) तेजः स्पृष्टा-अग्निना दह्यमानाः (पाणिणोव) माणिनो. जन्तइइवेति ॥८॥
इसके अनन्तर सूत्रकार वधपरीषह का वर्णन करते हैं'अप्पेगे खुधियं' इत्यादि।
शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येका' यदि कोई लसए-लूषक' क्रूर 'खुधियंक्षुधितम्' भूखे 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधु को 'स्लुणी दंसनि-सुनीदशति' कुत्ता काटने लगता है तो 'तस्थ-तत्र' उस समय 'मंदा-मन्दाः' अज्ञ पुरुष 'विसीयंति-विषीदन्ति' इस प्रकार दीनता को पाता है की 'तेउ. पुट्ठा-तेजास्पृष्टाः' अग्नि के द्वारा स्पर्श किया हुआ 'पाणिणोव-प्राणिनइव' प्राणी घबराता है ।।८॥ ____ अन्धयार्थ--कोई क्रूर कुत्ता आदि प्राणी भूखे (भिक्षा के लिए भ्रमण करते) साधु को काट लेता है । तब कुत्ता आदि के काटने पर मंदसत्व साधु विषाद करता है-दीन बन जाता है, मानों उसे अग्नि का स्पर्श हो गया हो ! ॥८॥
वे सूत्रा२ १५ परीषनु ४थन ४२ छ-'अप्पेगे खुधियं' त्याह
महा-'अप्पेगे-अप्येकाने 'लूसए-लुषकः ४२ 'खुधिय-क्षुधितम्' भूज्या भिक्खु-भिक्षुम्' साधुने 'सुणी दसति-शुनी दशति' इतरे। ४२७॥ साग त: 'तत्थ-तत्र' ते समये 'मंदा !-मन्दा:' २१ ५३५ ‘विसीयति-विषीदन्ति' भाभा हीनता युस्त मनी नय छ ? 'तेउपुट्ठा-वेजः स्पृष्टाः' मशिना वास २५ शेयर 'पाणिणो व-प्राणिन इव' प्राणी सराय छे. ॥८॥
સવાર્થ_ભિક્ષાપાસિને માટે ભ્રમણ કરતા ભૂખ્યા સાધુને કઈ કઈ વાર કેઈ ફૂર કૂતરા કરડે છે. આવું બને ત્યારે મન્દસર્વ સાધુ વિષાદ અનુભવે છે. અગ્નિને સ્પર્શ થઈ ગયે હોય એટલું દુઃખ તેને તે વખતે થાય છે. ૮