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पीठिका
मलगणे
प्रकार प्रतिसेवक और प्रतिसेवना में एकत्व है। ज्ञान और ज्ञानी अतिक्रम आदि के लिए लघुमास का प्रायश्चित्त है। (ये लघुमास से ज्ञेय अन्य भी है और अनन्य भी है। इसी प्रकार प्रतिसेवितव्य भी क्रमशः तप और काल से विशेषित होते हैं। से प्रतिसेवक का कदाचित् अनानात्व और कदाचिद् नानात्व ४५. पाणिवह-मुसावाए, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव। होता है। प्रतिसेवना प्रतिसेवक का अध्यवसाय है, अतः दोनों में मूलगुणे पंचविहे, परूवणा तस्सिमा होति।। एकत्व है। स्त्री संबंधी प्रतिसेवना में प्रतिसेवक में नानात्व है मूलगुण विषयक पांच प्रकार की प्रतिसेवना-प्राणातिपात, क्योंकि स्त्री प्रतिसेवक से भिन्न है।
मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह। इस पंचविध ४१. मूलगुण-उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं। प्रतिसेवना के भेद-प्रभेद की प्ररूपणा इस प्रकार है।
मूलगुणे पंचविहा, पिंडविसोहादिया इयरा ॥ ४६. संकप्पो संरंभो, पारितावकरो भवे समारंभो।
प्रतिसेवना संक्षेप में दो प्रकार की है-मूलगुण विषयक आरंभो उद्दवतो, सव्वनयाणं पि सुद्धाणं ।। प्रतिसेवना तथा उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना। मूलगुण विषयक प्राणातिपात का संकल्प करना संरंभ है। दूसरों को परितप्त प्रतिसेवना के पांच प्रकार है-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, करने वाली प्रवृत्ति समारंभ है और प्राणव्यपरोपण करना आरंभ मैथुन और परिग्रहरूप। उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना के पिंड- है। सभी अशुद्ध नयों द्वारा ये तीनों सम्मत हैं। विशुद्धि आदि अनेक प्रकार हैं।
४७. सव्वे वि होति सुद्धा, नत्थि असुद्धो नयो उ सट्ठाणे। ४२. सा पुण अइक्कम वइक्कमे य अतियार तह अणायारे। पुव्वा व पच्छिमाणं, सुद्धा ण उ पच्छिमा तेसिं॥
संरंभ समारंभे, आरंभे रागदोसादी ॥ नैगम आदि सभी सातों नय स्वस्थान अर्थात् अपनी
समस्त उत्तरगुण प्रतिसेवना के चार प्रकार हैं-अतिक्रम, अपनी वक्व्यता में शुद्ध हैं। स्वस्थान में कोई भी नय अशुद्ध नहीं व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार। मूलगुण प्रतिसेवना के तीन है। प्रथम तीन नय-नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये अंतिम चार प्रकार हैं-राग, द्वेष और अज्ञान।
नयों ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत की अपेक्षा शुद्ध ४३. आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति। हैं।
पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ ४८. वेणइए मिच्छत्तं, ववहारनया उ जं विसोहिंति।
आधाकर्म आहार आदि का निमंत्रण स्वीकार करना तम्हा तेच्चिय सुद्धा, भइयव्वं होति इयरेहिं। अतिक्रम है। (मुनि निमंत्रण स्वीकार कर उठता है, पात्रों को नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये तीन नय वैनयिक व्यवस्थित कर गुरु के पास आकर भिक्षाचर्या के लिए जाने की (मिथ्यादृष्टि) में मिथ्यात्व का विशोधन करते हैं इसलिए ये शुद्ध अनुमति लेता है, यह सारा अतिक्रम है।) मुनि अपने स्थान से हैं। ऋजुसूत्र चार नयों द्वारा मिथ्यात्व-विशोधि वैकल्पिक है, प्रस्थान करता है (मार्ग में चलकर घर में प्रवेश करता है और होती भी है और नहीं भी होती। पात्र को फैलाता है) यह व्यतिक्रम है। पात्र में भोजन ग्रहण करता ४९. ववहारनयस्साया, कम्मं काउं फलं समणुहोति । है (गुरु के पास आता है, भोजन मंडली में बैठकर कवल को मुंह इति वेणइए कहणं, विसेसणे माहु मिच्छत्तं॥ में डालता है,पर अभी तक कवल को निगला नहीं है) यह व्यवहारनय के मतानुसार आत्मा कर्म(शुभ-अशुभ) अतिचार है। कवल को निगल जाने पर अनाचार दोष प्राप्त होता करती है और उनके फल का अनुभव करती है। इसलिए
वैनयिक(मिथ्यादृष्टि) को मिथ्यात्व के अपनयन के लिए ४४. तिन्नि य गुरुकामा सा, विसेसिया तिण्ह व अह गुरुअंते। धर्मोपदेश दिया जाता है। विशेषण अर्थात् भेदप्रधान ऋजु सूत्र
एते चेव उ लहुया, विसोधिकोडीय पच्छित्ता ॥ आदि नयों के अभिमत में जीव मिथ्यात्व को प्राप्त न हों, इस
अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीनों में प्रत्येक के आशंका से धर्मोपदेश की प्रवृत्ति नहीं होती। तप और काल से विशिष्ट मासगुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ५०. संकप्पादी ततियं, अविसुद्धाणं तु होति उ नयाणं। अनाचार में चार मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। (यह विधान इयरे बाहिरवत्थु, नेच्छंताया जतो हिंसा॥ अविशोधि कोटि के अतिक्रम आदि के लिए है।) विशोधिकोटिक अविशुद्ध नयों के अभिमत में संकल्पत्रिक (संरंभ, समारंभ
१. जब प्रतिसेवक हस्तकर्म आदि करता है तब प्रतिसेवक और
प्रतिसेवितव्य का एकत्व होता है। जब प्रतिसेवक प्रमत्तता से हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है तब वह प्रतिसेवितव्य से नानात्व है।
२. शुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात् पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः।
(वृ. पत्र १८)
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