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सानुवाद व्यवहारभाष्य
दो गीतार्थ मुनि साथ-साथ विहार कर रहे थे। उन्हें सचित्त
३. प्रायश्चित्त का निमित्तों के आधार पर प्ररूपणाआदि (शिष्य, उपकरण) की प्राप्ति हुई। दोनों में विवाद हुआ। बाहुल्य। व्यवहार परिच्छेद का प्रसंग उपस्थित होने पर, एक गीतार्थ ने
४. कल्पाध्ययन और व्यवहाराध्ययन का नानात्व। दूसरे को गीतार्थ (व्यवहार-परिच्छेदक) नियुक्त किया जिससे ५. प्रायश्चित्तार्ह परिषद्। सम्यक् व्यवहार की प्रतिपत्ति हो सके।
६. सूत्रार्थ। जो गीतार्थ पारस्परिक विवाद का अतिक्रमण(समापन) ३५. पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण। नहीं कर पाता वह अपने साथी गीतार्थ को कहता है-'तुम ही इस पाएण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं ।। व्यवहार का परिच्छेद करो।' इस प्रकार निमंत्रित होने पर वह जिससे अपराध-संचित पाप नष्ट होता है उसे प्रायश्चित्त चिंतन करता है-इसने इस व्यवहार में प्रमाण मानकर मुझे कहा जाता है। जो चित्त जीव का प्रायः विशोधन करता है, वह तीर्थंकर की अविच्छिन्न संघ परंपरा में स्थापित किया है अतः है प्रायश्चित्त। लोभ आदि से व्यवहार का लोप कर मैं संघ को तीर्थंकर से ३६. पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। अंतरित (विच्छिन्न) कैसे स्थापित कर सकता हूं?
. पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ॥ ३१. पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गे चेव जे उ पडिवक्खा । प्रायश्चित्त के चार भेद हैं-प्रतिसेवना, संयोजना,
ते वि हु ववहरियव्वा, किं पुण जे तेसि पडिवक्खा॥ आरोपणा और परिकुंचना।
(शिष्य ने पूछा-जो प्रियधर्मा आदि यदि प्रमादी हैं तो वे ३७. पडिसेवओ य पडिसेवणा य पडिसेवितव्वगं चेव। व्यवहर्तव्य कैसे?)
एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। आचार्य बोले-जो प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न के प्रतिसेवक, प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य-इन तीनों में से प्रतिपक्षी-अप्रियधर्मा, अदृढधर्मा, असंविग्न हैं, वे भी व्यवहर्तव्य प्रत्येक की प्ररूपणा करूंगा। हैं तो फिर जो अप्रियधर्मा आदि के प्रतिपक्षी-प्रियधर्मा आदि हैं वे ३८. पडिसेवओ सेवंतो, पडिसेवण मूलउत्तरगुणे य। तो व्यवहर्तव्य हैं ही।
पडिसेवियव्वदव्वं, रूविव्व सिया अरूविव्व। ३२. बितियमुवएस अवंकादियाण जे होति तु पडिवक्खा। प्रतिसेवक-अकल्पनीय का सेवन करने वाला।
ते वि हु ववहरियव्वा, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ प्रतिसेवना-मूल और उत्तरगुण विषयक अकल्पनीय का
इस विषयक दूसरा आदेश (मत) यह है-अवक्र आदि के समाचरण। प्रतिपक्षी जो वक्र आदि हैं वे भी आभवत् प्रायश्चित्त की अपेक्षा प्रतिसेवितव्य-प्रतिसेवनीय रूपी अथवा अरूपी द्रव्य। से व्यवहर्तव्य हैं।
३९. पडिसेवणा तु भावो, ३३. उवदेसो उ अगीते, दिज्जति बितिओ उ सोधि ववहारो।
सो पुण कुसलो व होज्जऽकुसलो वा। गहिते वि अणाभव्वे, दिज्जति बितियं तु पच्छित्तं। कुसलेण होति कप्पो, अगीतार्थ को पहले उपदेश दिया जाता है फिर वह शोधि
अकुसलपरिणामतो दप्पो॥ व्यवहार-शोधि के लिए अनाभाव्य प्रायश्चित्त लेता है। यह प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं-द्रव्य प्रतिसेवना और भाव द्वितीय है। अनाभाव्य प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति को भी पहले प्रतिसेवना। भाव प्रतिसेवना जीव का अध्यवसाय है। उसके दो उपदेश दिया जाता है और फिर उसे पहले आभाव्य प्रायश्चित्त भेद हैं-कुशल (ज्ञान आदि रूप) तथा अकुशल (अविरति आदि
और बाद में दान प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह द्वितीय है। रूप)। कुशल परिणाम से की गयी प्रतिसेवना कल्पिका ३४. पायच्छित्तनिरुत्तं, भेदा जत्तो परूवणपुहुत्तं।। प्रतिसेवना और अकुशल परिणाम से की गयी प्रतिसेवना दर्पिका
अज्झयणाण विसेसो, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । प्रतिसेवना कहलाती है। प्रायश्चित्त के प्रतिपाद्य विषय
४०. नाणी न विणा नाणं, णेयं पुण तेसऽणन्नमन्नं च। १. प्रायश्चित्त का निर्वचन।
इय दोण्हमणाणत्तं, भइयं पुण सेवितव्वेण || २. प्रायश्चित्त के भेद।
ज्ञान के बिना ज्ञानी नहीं होता (दोनों में एकत्व है)। इसी
१. चूर्णीकृत् चित्त इति जीवस्याख्येति (वृ.पत्र१५) २. रूपी द्रव्य-प्रतिसेवनीय आधाकर्म ओदन आदि।
अरूपी द्रव्य-प्रतिसेवनीय मृषावाद के विषयरूप में आकाश आदि।
(वृ. पत्र १६) For Private & Personal Use Only
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