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१०.
'सूत्र' शब्द से आगम और श्रुत-ये दोनों व्यवहार सूचित किये गये हैं। 'अर्थ' शब्द से आज्ञा और धारणा- ये दो व्यवहार गृहीत हैं। अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचीर्ण जीत व्यवहार 'जीत' शब्द से गृहीत है। जीत और उचित-ये एकार्थक हैं। दद्दुरमादिसु कल्लाणगं, तु विगलिंदिएसऽभत्तट्ठो । परियावण एतेसिं, चउत्थमायंबिला हौति ॥ मेंढक आदि तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की प्राणहिंसा होने पर पांच कल्याणक, विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय से चतुः इंद्रिय वाले) जीवों की हिंसा होने पर उपवास तथा मेंढक आदि की परितापना होने पर उपवास और विकलेन्द्रिय की परितापना होने पर आयंबिल का प्रायश्चित प्राप्त होता है।
११. अपरिण्णा कालादिसु अपठिक्कंतस्स निव्विगतियं तु । निव्विगतिय पुरिमड्डो, अंबिल खमणा य आवासे ॥ अपरिज्ञा अर्थात नवकारसी, पौरूषी आदि दिवस प्रत्याख्यान तथा आहार- पानी का वैकालिक प्रत्याख्यान न करने अथवा किये हुए प्रत्याख्यान का भंग करने तथा स्वाध्याय काल आदिका प्रतिक्रमण न करने या प्रतिक्रमण के निमित्त कायोत्सर्ग न करने पर निर्विकृति (दूध आदि विगयवर्जन) का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
आवश्यक करते समय एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विकृति दो कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमल, तीनों कायोत्सर्ग न करने पर आचाम्ल तथा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
१२. जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ जिस गच्छ में आचार्य परंपरा के अविरुद्ध, जो प्रायश्चित्त का विधान है तथा योग उपधान विषयक अनेक विकल्प हैं, वह जीतकल्प या जीत व्यवहार है।"
१३. दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था। उत्तरदव्व अगीता, गीता वा लंचपक्खेहिं ॥ पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवज्जभीरू य । सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य ।। व्यवहारी के चार प्रकार है-नामव्यवहारी स्थापनाव्यवहारी, द्रव्यव्यवहारी और भावव्यवहारी । द्रव्य व्यवहारी के दो प्रकार है-लौकिक द्रव्यव्यवहारी लंचा रिश्वत लेकर व्यवहार करने वाले । लोकोत्तर द्रव्यव्यवहारी- अगीतार्थ अवस्था १. अनेक आचार्यों की परंपरा में नमस्कार आदि प्रत्याख्यान न करने या उनका भंग करने पर प्रायश्चित्त है आचाम्ल । आवश्यकगत कायोत्सर्ग न करने पर पूर्वार्द्ध या एकाशन का प्रायश्चित्त है।
योगवहन - उपधानकरण में भिन्नता है। नागिलकुलवंशी मुनि
१४.
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सानुवाद व्यवहारभाष्य मैं अर्थात् यथावस्थित व्यवहार के परिज्ञान के अभाव में व्यवहार करने वाले। यहां द्रव्य शब्द अप्रधानवाची है। इसका तात्पर्य है कि वे अप्रधानव्यवहारी हैं। अथवा गीतार्थ होने पर भी लंचा के उपजीवी होकर व्यवहार करने वाले हैं।
लौकिक भावव्यवहारी - मध्यस्थ भाव से व्यवहार करने
वाले।
लोकोत्तर भावव्यवहारी जो प्रियधर्मा दृढधर्मा, भाव संविग्र, पापभीरू, सूत्रविद अर्थविद तदुभयविद् तथा अनिश्रितव्यवहारी होता है, वह लोकोत्तर भावव्यवहारी है।
१५.
पियधम्मे दधम्मे, य पच्चओ होइ गीतसंविग्गे । रागो उ होति निस्सा, उवस्सितो दोससंजुत्तो ॥ प्रायश्चित्तवाता यदि प्रियधर्मा, दृढधर्मा, गीतार्थ और संविग्न होता है तो उसके प्रति विश्वास होता है।
निश्रा का अर्थ है-राग और उपश्रित (उपश्रा) का अर्थ हैद्वेष- संयुक्त ।
१६.
अहवा आहारादी, दाहिइ मज्झं तु एस निस्सा उ । सीसो पडिच्छिओ वा, होति उवस्सा कुलादी वा ॥ अथवा प्रायश्चित्तदाता 'यह मुझे आहार आदि लाकर देगा' इस सापेक्षता से प्रायश्चित देता है तो यह निश्रा है और यदि यह मेरा शिष्य है', 'यह प्रतीच्छक (अन्यगण से आया हुआ है, 'यह मेरे मातृकुल या पितृकुल का है' इस अपेक्षा का अभ्युपगम होता है, वह उपश्रा है ।
१७.
लोए चोरादीया, दव्वे भावे विसोहिकामा य । जाय-मयसूतगादिसु, निज्जूढा पातगहता य ।। लौकिक व्यवहर्तव्य के दो प्रकार हैं-द्रव्य व्यवहर्तव्य और भाव व्यवहर्तव्य । चोर आदि (परदारिक, घातक, हेरिक) द्रव्य व्यवहर्तव्य हैं। ये विशोधि के इच्छुक नहीं होते जो विशोधि के इच्छुक होते हैं वे भाव व्यवहर्तव्य हैं जो पुरुष जन्मसूतक, मृतसूतक तथा शूद्र आदि के घरों में भोजन करने के कारण ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत कर दिये हों तथा पातकहत हों अर्थात् ब्रह्महत्या, माता-पिता के घातक आदि हों (और यदि वे अपना दोष स्वीकार करते हों) तो ये सभी लौकिक द्रव्य व्यवहर्तव्य हैं। १८.
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फासेऊण अगम्मं, भणाति सुमिणे गतो अगम्मं ति । एमादि लोगदब्बे, उज्जू पुण होति भावम्मि ॥ कोई ब्राह्मण अगम्य (पुत्रवधू अथवा चांडाल स्त्री) के साथ मैथुन का सेवन कर प्रायश्चित्त के समय चतुर्वेदी के समक्ष
आचारांग से अनुत्तरोपपातिकदशा तक केवल निर्विकृति । कल्पव्यवहार तथा चंद्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के लिए कुछेक आचार्य आगाढ़ योग का और कुछेक अनागाढ़ योग का कथन करते हैं - यह सारा गच्छभेद से जीतकल्प है। (वृ. ८ )
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