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पीठिका
मायापूर्वक कहता है-'मैंने स्वप्न में अगम्य स्त्री के साथ सहवास है और अकृत्यकरण से प्रत्यावृत्त होकर गुरु के समीप आलोचना किया है' 'मैंने स्वप्न में अपेय का पान किया है ऐसा व्यक्ति भी करता है, वह भी भावव्यवहर्तव्य है। लौकिक द्रव्य व्यवहर्तव्य है।
२४. निक्कारण पडिसेवी, कज्जे निद्धंधसो य अणवेक्खो। जो ऋजुता से आलोचना करता है वह लौकिक भाव देसं वा सव्वं वा, गहिस्सं दव्वतो एसो । व्यवहर्तव्य है।
जो निष्कारण ही प्रतिसेवना करता है और तथाविध कार्य १९. परपच्चएण सोही, दव्वुत्तरिओ उ होति एमादी। के समुत्पन्न होने पर भी करुणाहीन और अपेक्षाशून्य हो जाता
गीतो व अगीतो वा, सम्भावउवट्ठितो भावे॥ है (दोष सेवन कर अनुताप नहीं करता) तथा दोष सेवन कर यह
शोधि परप्रत्ययिक-आचार्य, उपाध्याय के द्वारा ही होती सोचता है कि मैं दोषों को देशतः अथवा सर्वतः छिपा लूंगा(कुछ है।(आचार्य आदि ने मेरे दोषों को जान लिया है अतः मैं सम्यक् दोष मात्र की आलोचना करूंगा अथवा करूंगा ही नहीं) वह भी आलोचना करूं) ऐसा सोचकर जो ओलाचना करता है वह द्रव्यव्यवहर्तव्य है। लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्तव्य है तथा जो बड़े दोष का सेवन कर २५. सो वि हु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदन्ने यं। आलोचना के समय उसे छोटा बना देता है अथवा स्वकृत दोष घडगारतुल्लसीलो, अणुवरतोसन्न मज्झत्ति || को दूसरों पर मढ़ देता है, वह भी लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्तव्य है। वह निष्कारण प्रतिसेवी भी द्रव्यव्यवहर्तव्य होता है क्योंकि
गीतार्थ हो अथवा अगीतार्थ, यदि वह प्रायश्चित्त ग्रहण इससे अनवस्था(बार-बार अकृत्य के सेवन) का निवारण होता करने के लिए सद्भाव से उपस्थित है तो वह लोकोत्तर भाव है। उसे व्यवहर्तव्य देखकर अन्य मुनि भी अकृत्य से निवृत्त हो व्यवहर्तव्य है।
जाते हैं। जो उपदेश देने पर भी अकृत्य से उपरत नहीं होता वह २०. अवंकि अकुडिले यावि,कारणपडिसेवि तह य आहच्च।। कुंभकार सदृश बीच में ही दंडित करने का स्वभाववाला होता
पियधम्मे य बहुसुते, बितियं उवदेस पच्छित्तं ॥ है। वह व्यवहर्तव्य नहीं होता। लोकोत्तर भाव व्यवहर्तव्य के गुण-वह अवक्र-संयत, २६. पियधम्मो जाव सुयं, ववहारण्णाा उ जे समक्खाता। अकुटिल-अमायावी (अक्रोधी, अमानी, अलोभी), कारण सव्वे वि जहुद्दिट्ठा, ववहरियव्वा य ते होंति ।। उपस्थित होने पर ही प्रतिसेवना करने वाला, कदाचित् अकारण जो प्रियधर्मा, दृढधर्मा, संविग्न, पापभीरू, सूत्रवित्, में भी प्रतिसेवी, प्रियधर्मा(दृढधर्मा, संविग्न, पापभीरू, अर्थवित् तथा सूत्रार्थविद् हैं, उन्हें व्यवहारज्ञ कहा गया है। सूत्रार्थविद्) और बहुश्रुत। दूसरे मत के अनुसार अवक्र आदि के यथोक्तस्वरूप वाले ये सभी भावव्यवहर्तव्य होते हैं। प्रतिपक्षी भी व्यवहर्तव्य हैं। अगीतार्थ को उपदेशपूर्वक प्रायश्चित्त २७. अग्गीतेणं सद्धिं, ववहरियव्वं न चेव पुरिसेणं। दिया जाता है।
जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्मं न सद्दहति ।। २१. आहच्च कारणम्मि य,सेवंतो अजयणं सिया कुज्जा। अगीतार्थ पुरुष व्यवहर्तव्य नहीं होता क्योंकि उसके प्रति
एसो वि होति भावे, किं पुण जतणाएँ सेवंतो॥ यथोचित व्यवहार करने पर भी वह उस व्यवहार पर सम्यक्
कदाचित् कोई मुनि प्रयोजनवश अयतनापूर्वक प्रतिसेवना श्रद्धा नहीं करता(वह यही सोचता है कि यह व्यवहार परिपूर्ण . करता है, वह भी भावव्यवहर्तव्य है तो फिर यतनापूर्वक नहीं है।) प्रतिसेवना करने वाला भावव्यवहर्तव्य क्यों नहीं होगा? २८. दुविहम्मि वि ववहारे, गीतत्थो पट्ठविज्जती जं तु। २२. पडिसेवितम्मि सोधिं, काहं आलंबणं कुणति जो उ। तं सम्म पडिवज्जति, गीतत्थम्मी गुणा चेव ।।
सेवंतो वि अकिच्चं, ववहरियव्वो स खलु भावे ।। व्यवहार के दो प्रकार हैं-प्रायश्चित्त व्यवहार और
जो मुनि अकृत्य का सेवन करता हुआ इस आलंबन से आभवत् व्यवहार। इन दोनों में गीतार्थ को ही प्रज्ञप्ति दी जाती है प्रतिसेवना करता है कि 'मैं अकृत्य का प्रायश्चित्त लेकर विशोधि क्योंकि वह उन्हें सम्यक्प से स्वीकार करता है। गीतार्थ में गुण कर लूंगा' वह भी भावव्यवहर्तव्य होता है।
ही होते हैं, अवगुण नहीं। २३. अधवा कज्जाकज्जे, जताऽजतो वावि सेवितुं साधू । २९. सच्चित्तादुप्पण्णे, गीतत्था सति दुवेण्ह गीताणं ।
सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे॥ एगतरे उ निउत्ते, सम्मं ववहारसद्दहणा।।
अथवा जो मुनि प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन भी ३०. गीतो यऽणाइयंतो, छिंद तुमं चेव छंदितो संतो। यतनापूर्वक या अयतना से प्रतिसेवना कर सद्भाव में लौट आता कहमंतरं ठावेति, तित्थगराणंतरं संघं। १. देखें-व्यवहार भाष्य, परिशिष्ट ८, कथा २ For Private & Personal Use Only
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