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समीचीन-धर्मशास्त्र कैसे बन सकता है, अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मसंततिको नाश करनेके लिये कैसे समर्थ नहीं होता और ज्ञानादिसे कुछ हीन दूसरे धर्मात्माओंका अनादर करनेसे धर्मका ही अनादर क्योंकर होता है। इसके सिवाय, सम्यग्दर्शनकी महिमाका विस्तारके साथ वर्णन दिया है और उसमें निम्नलिखित विशेषताओंका भी उल्लेख किया है
(१) सम्यग्दर्शनयुक्त चांडालको भी 'देव' समझना चाहिये।
(२) शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, स्नेह तथा लोभसे कुदेवों, कुशास्त्रों और कुलिंगियों ( कुगुरुओं) को प्रणाम तथा विनय नहीं करते।
(३) ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन मुख्यतया उपासनीय है, वह मोक्षमार्गमें खेवटियाके सदृश है और उसके विना ज्ञान तथा चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय उसी तरह नहीं हो पाते जिस तरह बीजके अभावमें वृक्षकी उत्पत्ति आदि ।
(४) निर्मोही ( सम्यग्दृष्टि ) गृहस्थ मोक्षमार्गी है परन्तु मोही ( मिथ्यादृष्टि ) मुनि मोक्षमार्गी नहीं; और इसलिये मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ।
(५) सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हुए जीव, अव्रती होने पर भी, नारक, तिर्यच, नपुंसक और स्त्री-पर्यायको धारण नहीं करते, न दुष्कुलोंमें जन्म लेते हैं, न विकृतांग तथा अल्पायु होते हैं और न दरिद्रीपनेको ही पाते हैं।
द्वितीय अध्ययनमें सम्यग्ज्ञानका लक्षण देकर उसके विषयभूत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगका सामान्य स्वरूप दिया है।
तीसरे अध्ययनमें सम्यकचारित्रके धारण करनेकी पात्रता और आवश्यकताका वर्णन करते हुए उसे हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन