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५ जावना
ग्रन्थ-परिचय
स्वामि- समन्तभद्राचार्य-प्रणीत इस समीचीन धर्मशास्त्रमें श्रावकोंको लक्ष्य करके उस धर्मका उपदेश दिया गया है जो कर्मोंका नाशक है और संसारी जीवोंको संसारके दुःखोंसे निकालकर उत्तम सुखों में धारण करनेवाला अथवा स्थापित करनेवाला है । वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रस्वरूप है और इसी क्रमसे आराधनीय है । दर्शनादिककी जो स्थिति इसके प्रतिकूल है - सम्यकरूप न होकर मिथ्यारूपको लिये हुए है - वही मं है और वही संसार - परिभ्रमरणका कारण है, ऐसा आचार्यमहोदयने प्रतिपादन किया है ।
इस शास्त्रमें धर्म के उक्त ( सम्यग्दर्शनादि ) तीनों अंगोंकारत्नत्रयका - ही यत्किंचित् विस्तार के साथ वर्णन है और उसे सात अध्ययनोंमें विभाजित किया है । प्रत्येक अध्ययनमें जो कुछ वर्णन है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है
प्रथम अध्ययनमें सत्यार्थ आप्त आगम और तपोभूत् (गुरु) के त्रिमूढतारहित तथा अष्टमदद्दीन और अष्टांगसहित श्रद्धानको 'सम्यग्दर्शन' बतलाया है; श्रप्त - श्रागम-तपस्वीके लक्षण, लोक -देव- पाखंडिमूढताओंका स्वरूप, ज्ञानादि श्रष्टमदोंके नाम और नि:शंकितादि अष्ट अंगोंके महत्वपूर्ण लक्षण दिये हैं। साथ ही वह दिखलाया है कि रागके विना आप्त भगवानके हितोपदेश