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परिणमनरूप पर्याय तीनकालसंबंधी समयसमवर्ती अनंत हैं । बहुरि एकपणा, अनेकपणा, नित्य- 5 पणा, अनित्यपणा, भेदपणा, अभेदपणा, शुद्धपणा, अशुद्धपणा आदि अनेकधर्म हैं, ते सामान्यरूप
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मय तो वचनगोचर हैं, अर विशेषवचनते अगोचर हैं, ते अनंत हैं ज्ञानगम्य हैं । ऐसें आत्मा भी वस्तु है, तामें भी अपने अनंत धर्म हैं । तिनिमें चेतनपणा असाधारण हैं, अन्य अवेतनद्रव्यमें 5 नाहीं । अर सजातीय जीवद्रव्य अनंत हैं, तिनिमें हैं तोऊ अपना अपना जुदाजुदा निजस्वरूपकरि
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का है । जातें द्रव्यद्रव्यनि के प्रदेशभेद हैं, तातें काहूका काहूमें मिलता नाहीं । सो यह चेतन्नपणा अपने अनंतधर्मनिमें व्यापक है, तातें याहीकूं आत्माका तत्त्व का है, ताकूं यह सरस्वतीकी 5 मूर्ति देखे है, अर दिखावे हैं, तातैं या आशीर्वादरूप वचन कया है— जो सदा प्रकाशरूप रहो, 5 सर्वप्राणीका कल्याण होय है ऐसें जानना । आगें टीकाकार इस ग्रंथका व्याख्यान 5 करनेका फलकूं चाहतासंता प्रतिज्ञा करे हैं ।
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परपरिणतिहेतो महनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेभवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः
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॥३॥
याका अर्थ - श्रीमान अमृतचंद्र आचार्य कहे हैं, जो इस समयसार कहिये शुद्धात्मा तथा 卐 5 यह ग्रंथ, ताकी व्याख्या कहिये कथनी तथा टीका, ताहीकरि मेरी अनुभूति कहिये अनुभवनकियारूप परिणति, ताके परमविशुद्धि कहिये समस्त रागादिविभावपरिणतिर हित उत्कृष्ट निर्मलता
होऊ । कैसी है यह मेरी परिणति ? परपरिणतिकूं कारण जो मोहनामा कर्म, ताका अनुभाव
कहिये उदयरूप विपाक, तातैं अनुभाव्य कहिये रागादिक परिणाम तिनिको जो व्याप्ति ताकरि 5 निरंतर कल्माषित कहिये मैली है । बहुरि मे कैसा हूं ? द्रव्यदृष्टिकरि शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूं ।
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