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स्वर-परिवर्तन ]
भाग १ : व्याकरण
(६) ह्रस्व स्वरों का दीर्धीकरण'--'श', 'ष' और 'स' के आगे अथवा पीछे यदि य र व् श् ष् और स् वर्ण किसी वर्ण ( श्, ष और स् ) के साथ संयुक्त रूप में आते हैं तो प्राय: विकल्प से (द्वित्वाभाव पक्ष में ) श, ष और स के पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ कर दिया जाता है [ तथा य र व् आदि का लोप भी होता है। ] जैसे--
म> आ--काश्यपः = कासवो, कस्सवो । पश्यति = पासइ, पस्सइ । स्पर्शः - फासो। अश्वः = आसो, अस्सो। वर्षः = वासो।
इ> ई--विश्रामः = वीसामो, विस्सामो । निस्सहम् = नीसह, निस्सहं । निषिक्तः = नीसित्तो। विश्वासः = वीसासो । निस्सरति = नीसरइ, निस्सरइ ।
. उ> --दुश्शासनः = दूसासणो, दुस्सासणो। दुस्सहः = दूसहो, दुस्सहो । पुष्यः = पूसो । मनुष्यः- मणूसो।
। अन्यत्र भी दीर्धीकरण देखा जाता है। जैसे--प्रतिसिद्धिः = पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी । प्रवचनम् = पावयणं, पवयणं । प्रसिद्धिः = पासिद्धी, पसिद्धी। परकीयम् = पारकर, परकेरं। सिंहः = सीहो। विंशति = वीसा । जिह्वा = जीहा । मुसलम - मूसलं, मुसलं । सुभगः- सूहवो, सुहवो । उत्सवः-ऊसवो । उच्छ्वासः - ऊसासो । समृद्धिः - सामिद्धी । भृकुटि: - भिउडी।]
(७) स्वर-भक्ति-प्राकृत में समानवर्गीय संयुक्त व्यञ्जनों का प्रयोग होने से कभी-कभी विभिन्नवर्गीय संयुक्त व्यञ्जनों को प्राकृत में बदलते समय जब व्यञ्जन वर्ण को किसी स्वर ( अ, इ, ई, और उ ) से विभक्त करके स्वरयुक्त व्यञ्जन बना दिया जाता है तो उसे 'स्वरभक्ति' कहते हैं। यह स्वरभक्ति प्रायः तब देखी जाती है जब संयुक्त व्यञ्जनों में से एक व्यञ्जन अन्तःस्थ या अनुनासिक हो । जैसे--रत्नम् = रयणं । अग्निः - अगणी । स्नेहः = सणेहो। क्षमा- छमा, खमा । गर्दा गरिहा, गरहा । आचार्य:-आयरियो । क्रिया-किरिया । स्वप्नः - सिविणो। श्लोकः = सिलोओ। भार्या भारिआ । हर्षः- हरिसो । कृष्ण-कसण । पग-पउम । छप-छउम। वर्षशतम् - वरिससयं । ज्या - जीआ । पथिवीपुहुवी। तन्वी = तणुई । श्वः = सुवे । स्यात् = सिया। वर्ष - वरिस । १. लुप्त य र व श ष सां श ष सां दीर्घः । हे० ८. १. ४३.
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