Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
________________
२४६ ]
प्राकृत-दीपिका
[ मागधी
चेट:--अह पि खाइश्शं । शकार:-~-शव्वचेडाणं महत्तलकं कलइश्शं । चेट:--भट्टके हुविश्शं । शकार:--ता मण्ण हिमम वअणं । चेटः--भट्टके ! शव्वं कलेमि, वज्जिअ अकज्ज। शकार:--अकज्जाह गन्धे वि णत्थि । चेट:--भणादु भट्टके । शकार:-एणं वशन्तशेणि मालेहि ।
चेट:-अहमपि खादिष्यामि । शकार:-सर्वचेटानां महत्तरकं करिष्यामि । चेट:-- भट्टक ! भविष्यामि । शकार:--तन्मन्यस्व मम वचनम् । चेट: ..भट्टक ! सर्वं करोमि वर्जयित्वा अकार्यम् । शकार:--अकार्यस्य गन्धोऽपि नास्ति । चेट:--भणतु भट्टकः । शकार:-एनां वसन्तसेनां मारय ।
चेट—-मैं भी खाऊँगा। शकार--सभी चेटों में प्रधान बना दूंगा। चेट-स्वामी ! बन जाऊंगा। शकार-तब मेरी बात मानो। चेट--स्वामिन् ! दुष्कार्य को छोड़कर सब कुछ करूंगा। शकार-दुष्कार्य की तो गन्ध भी नहीं है। चेट-कहिए, प्रभो ! शकार--इस वसन्तसेना को मारो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298