Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 297
________________ २७२ ] प्राकृत-दीपिका [लु-हो लुढ़कता है-लुढइ लूटता है लुट्टइ, लुटइ ले आता है-आणेइ ले जाता है - घेत्तइ लेता है लेइ लोटता है-लोट्टइ लोप करता है-लोवेइ लोभ करता है= लुब्भइ वरण करता है-वरह वर्णन करता है वणइ वहता है वहइ वहन करता है-वाहइ वापस जाता है पडिवच्चइ विकसित होता है उल्लसइ विचार करता है-विअप्पइ विद्वान् की तरह आचरण विउसइ विरोध करता है-बाहइ । विवाह करता है-विवहइ विश्वास करता है-पच्चाअइ विहार करता है-विहरइ बेचता है-विक्कीणइ व्यापार करता है ववहरइ शरमाता है-लज्जइ शाप देता है-सवइ शोभित होता है -सोहइ श्रद्धान करता है सद्दहइ सकता है-सक्का सगाई करता है-वरइ सजाता है-सज्जइ सन्तुष्ट होता है-तिप्पड़ सन्देह करता है-आसंकइ समझता है-बुज्झइ, बोहर समर्थ होता है - सक्का सम्पन्न होता है-संपज्जइ सरकता है=सरह सहारा लेता है अवलंबेइ सींचता है-सिंचइ सीखता है - सीखइ सीता है सिव्वइ सुगन्धित होता है सुरहा सुनता है-सुणइ सूघता है-जिंघा सूखता है-सूस सेवा करता है अणुचरइ, सेवइ सोता है-सयइ स्तुति करता है-थुणइ स्थापना करता है-ठवह स्नान करता है-हाइ स्मरण करता है - सुमरेइ स्वाद लेता है-चक्खइ स्वीकार करता है-अंगीकरइ हरण करता है हरई हर्षित होता है-हरिसइ हवन करता है-हुवइ हाथ मलता है - घुसलइ हारता है - पराजयइ हिंसा करता है -हिसइ हिलाता है-धुणेइ होता है = हवइ, होइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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