Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 275
________________ २५० ] प्राकृत-दीपिका सीता - नहि नहि, हसिदु विअ इच्छदि । अवदातिका - ( उपसृत्य ) जेदु भट्टिणि । ण खु अहं अवरज्झा । सीता - का तुमं पुच्छदि । ओदादिए कि एदं वा महत्यपरिगहिदं ? अवदातिका - भट्टिणि ! इदं वक्कलं ? सीता - वक्कलं किस्स आणीदं ? अवदातिका - सुणादु भट्टिणी । णेवच्छालिनी अय्यरेवा णिव्वत्तरंगप्पओअणं असो अरुक्खस्स एक्कं किसलअं अम्हेहि सीता--न नहि, हसितुमिवेच्छति । अवदातिका - ( उपसृत्य ) जयतु भट्टिनी ! भट्टिनि ! न खल्वहमपराद्धा १. - सीता का त्वां पृच्छति । अवदातिके ! अवदातिके ! किमेतद् वामहस्त परिगृहीतम् । अवदातिका -- भट्टिनि ! इदं वल्कलम् । सीता --- वल्कलं कस्मादानीतम् । अवदातिका शृणोतु भट्टिनी । नेपथ्यपालिन्यार्यरेवा निवृत्तरंग प्रयोजनमशोक --- सीता -नहीं, नहीं, यह तो हंसना सा चाह रही है । अवदातिका - ( पास में आकर ) स्वामिनी की जय हो, स्वामिनी ! मैंने कोई अपराध नहीं किया है । [ शौरसेनी सीता - तुमसे कौन पूछ रहा है ? अरी अवदातिके! अवदातिके ! बायें हाथ में यह क्या लिए हो ? अवदातिका - स्वामिनी ! यह तो वल्कल है । सीता - वल्कल कहाँ से लाई हो ? अदातिका -- स्वामिनी ! सुनिए, नेपथ्य- रक्षिका आर्या रेवा से नाटक के प्रयोजन के पूर्ण हो चुकने के बाद मैंने अशोक वृक्ष का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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