Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 282
________________ सिक्खा वयणाई ] भाग : ३ सङ्कलन ( अपभ्रंश प्राकृत ) (१७) सिक्खा - वयणाई " १. गुणहि न संप, कित्ति पर फल लिहिआ भुंजन्ति । केसरि न लहइ बोडिअ वि गय लक्खेहि घेप्पन्ति ।।४-३३५ ।। २. उअ कणिआरु पफुल्लिभउ कञ्चणकन्तिपयासु । -[ २५७ गोरीवयण विणिज्जअउ नं सेवइ वणवासु ॥४-३९६॥ ३. सरिहि न सरेहि, न सरवरेहिं न वि उज्जाणवणेहि । देस रवण्णा होंति वढ ! निवसन्तेहि सुअणेहि ||४४२२|| संस्कृत-छाया ( शिक्षा-वचनानि ) १. गुणैः न संपत् कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजाः लक्षः गृह्यन्ते ॥ २. पश्य ! कर्णिकारः प्रफुल्लितकः काञ्चनकान्तिप्रकाशः । गौरीवदनविनिर्जितको ननु सेवते वनवासम् ॥ ३. सरिद्भिः न सरोभिः न सरोवरैः नाप्युद्यानवनैः । देशाः रम्याः भवन्ति मूर्ख ! निवसद्भिः सुजनैः ॥ Jain Education International हिन्दी अनुवाद ( शिक्षा-वचन ) १. गुणों से केवल कीर्ति मिलती है; सम्पत्ति नहीं । मनुष्य भाग्य में लिखित फलों को भोगते हैं । सिंह ( गुण सम्पन्न होने पर भी ) एक कौड़ी ( कपर्दिका ) में भी नहीं बिकता जबकि हाथी लाखों में खरीदा जाता है । २. खिले हुए कर्णिकार नामक वृक्ष को देखो ! जो स्वर्ण के समान कान्ति से प्रकाशित है तथा गौरी ( सुन्दर नायिका ) के मुख की आभा को जीतने वाला है; ( आश्चर्य है ) फिर भी वह वनवास कर रहा है । ३. अरे मूर्ख ! न नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से और न उद्यानवनों से देश रमणीय होते हैं, अपितु सज्जनों के रहने से रमणीय होते हैं । १. श्रीहेमचन्द्रकृत प्राकृतव्याकरण के चतुर्थ पाद के सूत्रोदाहरणों से उद्धृत । १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298