Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 280
________________ भाग ३ : सङ्कलन मुक्खपतं० ] २. यन्ति कसाया नत्थून यन्ति नद्वन सव्व-कम्माई | सम सलिल - सिनातानं उज्झित कत-कपट - भरियान । ८'८ ॥ ३. यति अरिह- परम मन्तो पढिय्यते कीरते न जीव-वधो । यातिस-तातिस जाती तो जनो निव्वुति याति ।। ८९ ।। 1. अच्छति रन्ने सेले वि अच्छते दढ तपं तपन्तो वि । ताव न लभेय्य मुद्रकं याव न विसयान तूरातो ॥८-१० ॥ २. यान्ति कषायान् नष्ट्वा यान्ति नष्ट्वा सर्वकर्माणि । शमसलिलस्नातानां उज्झितकृत कपटभार्याणाम् ॥ ३. यदि अर्हत् परममन्त्रः पठ्यते क्रियते न जीववधः । यादृश- तादृशजातिः ततो जनो निर्वृतिं याति ॥ ४. आस्ते अरण्ये शैलेऽपि आस्ते दृढतपस्तप्यमानोऽपि । तावन्न लप्स्यते मोक्षं यावन्न विषयाणां (विषयेभ्यः) दूरात् ॥ प्रति अनुराग से रहित योगी ( संयमी साधु ) मोक्ष पद को प्राप्त करके पुनः संसार में नहीं आता है । २. जिन्होंने शम रूपी जल से स्नान किया है तथा मिथ्या स्नेह प्रदर्शित करने वाली भार्याओं का परित्याग किया है वे कषायों को तथा सभी कर्मों को नष्ट करके [ मोक्ष ] को जाते हैं । [ २५५ ३. अर्हत्-परम-मन्त्र ( पंच परमेष्ठी - नमस्कार रूप श्रेष्ठ मन्त्र - 'नमो (णमो) अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आइरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व साहूणं) को यदि कोई पढ़ता है तथा जीवों की हिंसा नहीं करता है तो वह मनुष्य किसी जाति ( उच्च अथवा नीच) का होने पर भी निर्वृत्ति ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है । Jain Education International ४. जंगल में रहने पर पर्वत पर रहने पर तथा घोर तप करने पर भी तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा जब तक विषयों से विरक्त नहीं होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298