Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 281
________________ २५६ ] प्राकृत-दीपिका [चूलिका०; अपभ्रंश (चूलिका-पैसाची प्राकृत ) (१६) घओ योगी' १. वन्थू सठासठेसु वि आलम्पित-उपसमो अनालम्फो। सब-लाच-चलने अनुझायन्तो हवति योगी ।। ८.१२ ।। २. झच्छर-डमरुक-भेरी-ढक्का-जीमूत-गफिर-घोसा वि । बम्ह-नियोजितमप्पं जस्स न दोलिन्ति सो धो ॥ ८.१३ ॥ - - संस्कृत-छाया (धन्यो योगी) १. बन्धुः शठाशठष्वपि आलम्बितोपशमोऽनारम्मः । सर्वज्ञराजचरणान् अनुष्यायन् भवति योगी॥ २. झच्छर-डमरुक-भेरी-ढक्का-जीमत-गम्भीरपोषा अपि । ब्रह्मनियोजितात्मानं यस्य न दोलयन्ति सो धन्यः ॥ हिन्दी अनुवाद ( उत्कृष्ट योगी) १. शठों ( मायावियों, धूर्ती ) तथा अशठों में भी बान्धवसदृश, उपशम (शान्त ) भाव का आश्रय लेने वाला और अनारम्भ ( दोष स आन्दरण) वाला सर्वज्ञ के चरणों का ध्यान करता हुआ योगी होता है। २. झच्छर ( अडाउज ), डमरुक, भेरी ( दुन्दुभि ) तथा ढक्का (नगामा पटह ) के मेघ के सदृश गम्भीर घोष भी ब्रह्म में लीन जिस आत्मा को विचलित नहीं करते हैं वही उत्कृष्ट ( धन्य = पूज्य ) योगी है। - - १. श्रीहेमचन्द्रकृत कुमारपालपरित, सर्ग ८ से उद्धत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298