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प्राकृत-दीपिका [चूलिका०; अपभ्रंश (चूलिका-पैसाची प्राकृत )
(१६) घओ योगी' १. वन्थू सठासठेसु वि आलम्पित-उपसमो अनालम्फो।
सब-लाच-चलने अनुझायन्तो हवति योगी ।। ८.१२ ।। २. झच्छर-डमरुक-भेरी-ढक्का-जीमूत-गफिर-घोसा वि ।
बम्ह-नियोजितमप्पं जस्स न दोलिन्ति सो धो ॥ ८.१३ ॥
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संस्कृत-छाया (धन्यो योगी) १. बन्धुः शठाशठष्वपि आलम्बितोपशमोऽनारम्मः ।
सर्वज्ञराजचरणान् अनुष्यायन् भवति योगी॥ २. झच्छर-डमरुक-भेरी-ढक्का-जीमत-गम्भीरपोषा अपि ।
ब्रह्मनियोजितात्मानं यस्य न दोलयन्ति सो धन्यः ॥
हिन्दी अनुवाद ( उत्कृष्ट योगी) १. शठों ( मायावियों, धूर्ती ) तथा अशठों में भी बान्धवसदृश, उपशम (शान्त ) भाव का आश्रय लेने वाला और अनारम्भ ( दोष स आन्दरण) वाला सर्वज्ञ के चरणों का ध्यान करता हुआ योगी होता है।
२. झच्छर ( अडाउज ), डमरुक, भेरी ( दुन्दुभि ) तथा ढक्का (नगामा पटह ) के मेघ के सदृश गम्भीर घोष भी ब्रह्म में लीन जिस आत्मा को विचलित नहीं करते हैं वही उत्कृष्ट ( धन्य = पूज्य ) योगी है।
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१. श्रीहेमचन्द्रकृत कुमारपालपरित, सर्ग ८ से उद्धत ।
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