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भाग ३ सङ्कलन
( जैन शौरसेनी प्राकृत ) (१४) णत्थि सदो विणासो '
गत्थि सदो दिणासो ]
१. भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्य चेव उप्पादो । गुणपज्जयेसु भावा उप्पादव ए पकुब्वंति ।। १५ ।। २. भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओोगो । सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ।। ३. मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ॥
१६ ।।
१७ ॥
संस्कृतच्छाया ( सतो विनाशो नास्ति )
१. भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैवोत्पादः । गुणपर्यायेषु भावा उत्पादव्ययान्
प्रकुर्वन्ति ॥
२. भावा जीवाद्या जीवगुणश्चेतना
चोपयोगः ।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्याया बहवः ॥
भवतीतरो वा ।
न जातेऽन्यः ॥
३. मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो उभयत्र जीवभावो न नश्यति
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हिन्दी अनुवाद ( सत् का विनाश नहीं होता है )
१. भाव ( सत् या द्रव्य) का नाश नहीं है तथा अभाव (असत्) का उत्पाद भी नहीं है । भाव (सत् द्रव्य) गुण और पर्यायों में उत्पाद्-व्यय करते हैं ।
२. जीवादि (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) भाव हैं । जीव के गुण चैतन्य और उपयोग ( दर्शन और ज्ञान ) हैं । जीव की पर्यावें देव, मनुष्य, नारक तथा तिर्यञ्चरूप अनेक हैं ।
३. मनुष्यत्व से नष्ट हुआ देही (जीव ) देव अथवा अन्य ( तिर्यञ्च आदि) होता है । उन दोनों ( मनुष्य और देव ) में जीवभाव नष्ट नहीं होता है: तथा दूसरा जीवभाव ( देव आदि ) उत्पन्न नहीं होता है ।
५. श्री कुन्दकुन्दकृत पंचास्तिकाय संग्रह से उद्धृत ( गाथा १५-१९ ) ।
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