Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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२५२ ]
प्राकृत-दीपिका [शौरसेनी; जैन शौरसेनी सीता-हला ! किं णु हु मम वि दाव सोहदि । अवदातिका--भट्टिणि ! सव्वसोहणीअं सुरूवं - णाम । अलंकरोदु
भट्टिणी। सीता-आणेहि दाव । ( गृहीत्वालङ्कृत्य ) हला! पेक्ख, किं दाणि
सोहदि ? अवदातिका-तव खु सोहदि णाम । सोवण्णि विअ वक्कलं संवुत्तं । सीता--हजे ! तुवं किंचि ण भणसि ? चेटी - णत्थि वाआए पओअणं । इमे पहरिसिदा तणूरुहा मंतेन्ति ।
(पुलकं दर्शयति ) सीता--हला ! किन्नु खलु ममापि तावत् शोभते । अवदातिका-भट्टिनि ! सर्वशोभनीयं सुरूपं नाम । अलंकरोतु भट्टिनी । सीता-आनय तावत् । ( गृहीत्वालंकृत्य ) हला ! पश्य, किमिदानीं शोभते ? अवदातिका--तव खलु शोभते नाम । सौणिकमिव वल्कलं संवृत्तम् । सीता--हजे ! त्वं किञ्चिन्न भणसि ? चेटी--नास्ति वाचा प्रयोजनम् । इमानि प्रहर्षितानि तनूरुहाणि मन्त्रयन्ते ।
(पुलकं दर्शयति ) सीता--अरी ! क्या यह मुझे शोभा देगा ? अवदातिका--स्वामिनी ! सुन्दर रूप वाले को सब कुछ सुन्दर लगता है।
स्वामिनी पहनकर देखें। सीता-अच्छा, लाओ। ( लेकर और पहन कर ) अरी ! देखो, क्या अच्छी
लगती है। अवदातिका-आप की शोभा का क्या कहना ? आपके शरीर के संस्पर्श से
यह वल्कल स्वर्ण-निर्मित सा लग रहा है । सीता--सखि ! तुम कुछ नहीं बोल रही हो? चेटी--इसमें कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। ये प्रहर्षित रोमा सब कुछ
कह रहे हैं । ( रोमाञ्च दिखलाती है)
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