Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 270
________________ शुकिददुक्किदश्शः ] भाग ३ : सङ्कलन [ २४५ (मागधी प्राकृत) (१२) शुकिद-दुक्तिवश पलिणामे' शकारः-अधम्मभीलू एशे बुड्ढकोले। भोदु, थावल चेड अणु णेमि । पुत्तका ! थावलका ! चेडा ! शोवण्णखडाई दइश्शं। चेटः-अहं पि पलिइश्शं । शकार:- शोवण्णं दे पीढके कालइश्शं । चेटः- अहं उवविशश्शं । शकारः--शव्वं दे उच्छिदइश्शं । संस्कृत-छ'या ( सुकृत-दुष्कृतयोः परिणामः ) शकार:-अधमं मीरुरेष वृद्ध कोलः । भवतु, स्थावरक चेटमनुनयामि । पुत्रक ! स्थावरक ! चेट ! सुवर्णकटकानि दास्यामि । चेट:-अहमपि परिधास्यामि । शकार:-सौवर्णं ते पीठकं कारयिष्यामि । चेट:-अहमपि उपवेक्ष्यामि । शकार:-सवं ते उच्छिष्टं दास्यामि । हिन्दी अनुवाद ( पुण्य और पाप का परिणाम ) शकार-यह वृद्ध शूकर (विट ) अधर्मभीरु है। अच्छा, [ इस कार्य के लिए ] स्थावरक चेट को मनाता है। पूत्रक ! स्थावरक ! चेट ! तुम्हें सोने का कङ्कण दूंगा। चेट--मैं भी पहनूंगा। शकार--तुम्हें सोने का आसन बनवा दूंगा। चेट-मैं भी उस पर बैठ गा । शकार-मैं तुम्हें सब बचा हुआ ( उच्छिष्ट ) भोजन दे दूंगा। १. महाकवि शूद्रकप्रणीत मृच्छकटिक, अङ्क ८, पृ० ४१२-४१६ से उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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