Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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शुकिददुकिकदश्श • ] __ भाग : ३ सङ्कलन
[ २४७ चेट.--पशीददु भट्टके ! इअंमए अणज्जेव अज्जा पवहण पलिवत
णेण आणीदा। शकार:--अले चेडा ! तवाविण पहवामि । चेट:--पहवदि भट्ट के शलीलाह, ण चालित्ताह । ता पशीददुःपशीददु
भट्टक । भाआमि क्खु अह । शकारः--तुम मम चेडे भविअ कश्श भाअशि ? चेट:- भट्टके पललोअश्श । शकारः --के शे पललोए ? चेट:--भट्टके ! शुकिद-दुक्किदश्श पलिणामे। चेट:--प्रसीदतु भट्टकः, इयं मया अनार्येण आर्या प्रवहणपरिवर्तने
नानीता। सकार:--अरे चेट ! तवापि न प्रभवामि ? चेट:--प्रभवति भट्टकः शरीरस्य, न चारित्रस्य । तत् प्रसीदतु प्रसीदतु
भट्टकः, बिभेमि खलु अहम् । शकार:---त्वं मम चेटो भूत्वा कस्मात् बिभेषि ? चेट:-भटक ! परलोकात् । शकार:-कः स परलोक: ? चेट: ---भटक ! सुकृतदुष्कृतयोः परिणाम: ? चेट-स्वामिन् ! प्रसन्न होइए । मैं अनार्य इस आर्या वसन्तसेना को गाड़ी
के परिवर्तन से ले आया हूँ। शकार--अरे चेट ! क्या तुमसे भी यह कार्य नहीं करा सकता हूं। चेट--स्वामिन् ! शरीर पर आप समर्थ हैं, चारित्र पर नहीं । अतः श्रीमान्
प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए । मैं डरता हूँ। शकार-तुम मेरे चेट होकर किससे डरते हो? चेट--स्वामिन् ! परलोक से । शकार--यह परलोक कौन है ? चेट--स्वामिन् ! पाप और पुण्य का परिणाम ।
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