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कल्यानमित्तो]
भाग ३ : सङ्कलन
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तओ सो राया ससंभन्तो गओ सहयारवीहियं । दिट्ठो य तेण पउमासणोवविट्ठो, थिरधरियनयणजुयलो, पसन्तविचित्तचित्तवावारो, किपि तहाविहं, झाणं झायन्तो अग्गिसम्मतावसो त्ति। तओ राइणा हरिसवसपयट्टन्तपुलएण पणमिओ। तेण विय आसीसाए सबहुमाणमेवाहिणन्दिओ, 'सागयं ते' भणिऊण 'उवविसाहि' ति संलत्तो। उवविसिऊण सुहासणत्थेण भणियं राइणाभयवं! किं ते इमस्स महादुककरस्स तवचरणववसायस्स कारणं? अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भो महासत्त! दारिददुक्खं, परपरिहवो, विरूवया, तहा महारायपुत्तो य गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो त्ति ।
ततः स राजा ससंभ्रान्तो गतः सहकारवीथिकाम्, दृष्टश्च तेन पद्मासनोपविष्ट: स्थिरधृतनयनयुगलः, प्रशान्तविचित्रचित्तव्यापारः, किमपि तथाविधं ध्यानं ध्यायन् अग्निशर्मतापस इति । ततो राजा हर्षवशप्रवर्तमानपुलकेन प्रणतः । तेनाऽपि च आशिषा सबहुमानमेव अभिनन्दितः, 'स्वागतं तव' भणित्वा 'उपविश' इति संलपितः । उपविश्य सुखासनस्थेन भणितं राज्ञा-भगवन् ! कि तव अस्य महादुष्करस्य तपश्चरणव्यवसायस्य कारणम् ? अग्निशर्मतापसेन भणितम् --भो महासत्त्व ! दारिद्रयदुःखम्, परपरिभवः, विरूपता तथा महाराजपुत्रश्च गुणसेनो नाम कल्याणमित्रम् इति । ततः संजातनिजनामाऽऽशङ्कन
इसके बाद राजा वेगपूर्वक आम्रवीथिका की ओर गया और उसने वहाँ अग्निशर्मा तपस्वी को देखा जो पद्मासन से बैठा था, दोनों नेत्रों को स्थिर किए हुए था, चित्त की विभिन्न वृत्तियों को प्रशान्त किए हुए था तथा किसी ध्यान विशेष में आसक्त था। इसके बाद राजा ने हर्ष से पुलकित होकर उन्हें प्रणाम किया। उसने भी आशीर्वाद के द्वारा राजा का सम्मानपूर्वक अभिनन्दन किया। 'आपका स्वागत है' ऐसा कहकर 'बैठिए' कहा। बैठकर, सुखासन पर बैठे हुए राजा ने कहा-'भगवन् ! आपके इस महादुष्कर ( अत्यन्त कठिन ) तपश्चरण का क्या कारण है ?' अग्निशर्मा तपस्वी ने कहा-'हे महानुभाव । दरिद्रता का दुःख, दूसरों से तिरस्कार, कुरूपता तथा महाराजा का पुत्र गुणसेन
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