Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 263
________________ २३८ ] प्राकृत-दीपिका [ अर्धमागधी च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मज्जिअं च पाउवदाईच पहाणावदाई च बाहिरपेसणकारिं ठवेइ । __एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा जाव पन्वइए पंच य से महत्वयाइं उज्झियाई भवंति. से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुपैरियट्टइस्सइ, जहा सा उज्झिया। ___ एवं भोगवइया वि । नबरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं कुतियं (स्वस्य ) कुलगृहस्य क्षारोज्झिकां ( भस्मप्रक्षेपिकां ) छगणोज्झका ( गोमयप्रक्षेपिकाम् ), कचवरोज्झिकां ( गृहकचवरप्रक्षेपिकाम् ). समुक्षिकां ( गृहाङ्गणे जलसेचनिकाम् ), संमाजिक, पादोदकदायिकां स्नानोदकदायिकां बाह्यप्रेषणकारिकां च स्थापयति (तादशकार्यकारिणीत्वेन नियोजयतीत्यर्थ.)। [श्रीवर्धमानस्वामी प्राह]-एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावत् प्रवजित: सन् विहरति [ यदि ] पञ्च च तस्य महाव्रतानि उज्झितानि भवन्ति [ तर्हि | स खलु इह भवे एव बहूनां श्रमणानां बह्वीनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकानां बह्वीनां श्राविकानां च हालनीयः (निन्दनीयः) यावत् [ संसारकान्तारम् ] अनुपर्यटिष्यति, यथा सा उज्झिका।। एवं भोगवतिकाऽपि ( शाल्यक्षतभक्षिका द्वितीया पुत्रवधूपि ); केवलं पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष अपने कुलगृह की राख फेंकने वाली, गोबर फेंकने वाली, कचड़ा साफ करने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली तथा बाहर दासी के कार्य में नियुक्त किया। [ श्री वर्धमान स्वामी ने कहा ]--इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी प्रव्रज्या लेकर पाँच (चावल के दानों के समान पाँच) महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का परित्याग कर देता है वह उज्झिका के समान इसी जन्म में बहुत से श्रमणों (साधुओं), बहुत सी श्रमणियों (साध्वियों). बहत से श्रावकों (गृहस्थों) और बहुत सी श्राविकाओं (गृहस्थनियों) का तिरस्कार का पात्र बनता है और संसार मे भटकता है। इसी तरह भोगवतिका के विषय में समझना चाहिए । विशेषता यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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