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प्राकृत-दीपिका
'हंता, अत्थि ।'
'तए णं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएहि ।'
तए णं सा उज्झिया एयमट्ठे धण्णस्स पडिसुणेइ, पडिणित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ पंच सालिअक्खए गेहइ, गेव्हित्ता जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वयासी - एए णं ते पंच सालिअक्खए' त्ति कट्टु धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्यंसि ते पंच सालिअक्खए
दलयइ ।
[ उज्झिता प्राह ] हन्त ! अस्ति ( एतत्सत्यमस्ति ) ।
[ धन्यः प्राह ] तत् ( तस्मात् ) खलु त्वं हे पुत्र ! मह्यं तान् शाल्यक्षतान् प्रतिनिर्यातय |
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[ अर्धमागधी
ततः खलु सा उज्झिका एतमर्थं धन्यस्य प्रतिशृणोति (स्वीकरोति), प्रतिश्रुत्य यत्रैव कोष्ठागारं तत्रैवोपागच्छति, उपगत्य पल्लात् पञ्चशाल्यक्षतान् गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैव धन्यः सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति । उपागत्य धन्यं सार्थवाहमेवमादीत् - - एते खलु ते पञ्चशाल्यक्षताः' इति कृत्वा धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्ते तान् पञ्चशाल्यक्षतान् ददाति ।
वधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष मैंने तुम्हारे हाथ में पांच चावल के दाने दिए थे और यह कहा था कि हे पुत्री ! जब मैं ये पाँच चावल मांगूं, तब तुम मेरे ये पाँच चावल के दाने मुझे वापिस लौटाना । तो यह अर्थ समर्थ है- सत्य है ।
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उज्झका ने कहा--' हाँ ! यह सत्य है ।'
[ धन्य ने कहा ] -- तत्र हे पुत्री ! मेरे वे चावल के दाने वापिस लौटाओ । तत्पश्चात्, उज्झिका ने धन्य की यह बात स्वीकार की, स्वीकार करके जहाँ कोष्ठागार था वहां पहुंची, वहाँ पहुँचकर पल्य में से पाँच चावल के दाने ग्रहण किए और ग्रहण करके जहाँ धन्य सार्थवाह था वहीं पहुँची । कर धन्य सार्थवाह से बोली- ये हैं आपके पाँच चावल के दाने' कहकर धन्य सार्थवाह के हाथ में पाँच चावल के दाने दे दिए ।
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वहाँ पहुँचइस प्रकार
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