Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 266
________________ रोहिणिया सुण्हा ] भाग ३ : सङ्कलन [ २४१ एत् कारणं ति कट्ट, ते पंच सालिअक्खए सुद्ध वत्थे जाव तिसंज्ञं पडिजागरमाणी यावि विहरामि । तओ एएणं कारणेणं ताओ ! ते चैव ते पंच सालिअक्खए, जो अन्ने । तर गं से धण्णे सत्यवाहे रक्खियाए अंतिए एयमट्ठ सोच्चा हट्टतुठ्ठ० तस्स कुलघरस्त हिरन्नस्स य कंसदूसविपुलधण जाव सावतेज्जस्स य भंडागारिणि ठवेइ । एवामेव समणाउसो ! जाव पंच य से महन्त्रयाइं रक्खियाइं भवंति से णं इह भवे चैव बहूणं समगाणं, बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, जहा से रविखया । रोहिणिया वि एवं चैव । नवरं - 'तुब्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगडीप्रतिजानती विहरामि यावत् ( अद्यावधि ) । तदेतेन कारणेन हे तात ! व एवैते पञ्चशाल्यक्षताः, नो अन्ये ! ततः खलु स घन्यः सार्ववाहो रक्षिताया अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा हृष्टतुष्टः ० तस्य कुलगृहस्य हिरण्यस्य च कांस्य दृष्यविपुलधनं यावत् स्त्रापतेयस्य ( हिरण्यादिवावन्मात्रधनस्य ) भण्डागाराधिष्ठात्र स्थापयति । [ श्रीवर्धमानस्वामी प्राह ] एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! यदि पञ्च च तस्य महाव्रतानि रक्षितानि भवन्ति स खलु इहभवे चैव बहूनां श्रमणानां ० अर्चनीयः, यथा सा रक्षिता । रोहिणिकाऽप्येवमेव केवलं [ रोहिणिका - चतुर्थपुत्रवधूः श्रेष्ठिनं प्रत्याह ] हे तात ! यूयं महां सबहुकं सकटीसाकटं दत्त, येन ( शाकटचादिना ) अहं afar तथा तीनों सन्ध्याओं में इनकी देखभाल करती रही, अतएव हे पिता जी ! ये वही दाने हैं, दूसरे नहीं हैं । अनन्तर धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट हुआ । उसे अपने कुलगृह के हिरण्य ( सोना ), कांसा, रेशमी वस्त्र (दुष्य ) आदि विपुल धन की रक्षा करने मारिणी के रूप में नियुक्त किया । [ श्रीवर्धमान स्वामी ने प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो इम पाँच महाव्रतों की रक्षा करता है वह इसी जन्म में बहुत से श्रमणादिकों के द्वारा पूज्य हो जाता है; जैसे बह रक्षिका । रोहिणिका के भी विषय में ऐसा जानना चाहिए। विशेषता यह है ि १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only वाली भाण्डाकहा ] - इसी www.jainelibrary.org

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