Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 264
________________ रोहिणिया सुहा] भाग ३ : सङ्कलन [ २३९ पीसंतियं च एवं रंधतियं च परिवेसंतियं च परिभागंतियं च अब्भंतरियं च पेसणकारि महाणसिणि ठवेइ । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महत्वयाई फोडियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं, जाव हीलणिज्जे, जहा व सा भोगवइया । एवं रक्खिया वि। नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मंजूसं विहाडेइ, विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालि (विशेषस्त्वयम ) [ तां भोगवतिकाम् तस्य कुलगृहस्य यावत् कण्डन्तिकां ( उदूखलादो तण्डुलादीनां तुषापसारणार्थं मुसलादिनाऽवघातिनीम्), कुट्टयन्ति कां, पेषयन्तिकां, रुन्धयन्तिकां, रन्धयन्तिकां, पारवेषणकारिका, परिभाजयन्तिका ( पर्वदिनादौ स्वजनगृहेषु खण्डखाद्यादीनां संविभागकारिकाम् ) आभ्यन्तरिका च प्रेषणकारिकां महानसिकां स्थापयति । [ श्रीवर्धमानस्वामी प्राह ]-एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! योऽस्माकं श्रमणो वा श्रमणी वा [ यदि ] पञ्च च तस्य महाव्रतानि स्फोटितानि भवन्ति [ तर्हि ] स खलु इह भवे चैत्र बहूनां श्रमणानां० यथा सा भोगवतिका । एव रक्षिताऽपि (नृतीयपुत्रवधरपि ), केवलं यत्रैव वासगृहं तत्रैवोपाउसे खांडने वाली, पीसने वाली, जाते में दलकर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, पर्वो के प्रसङ्ग में स्वजनों के घर जाकर त्योहारी बाँटने वाली, भीतर का कार्य करने वाली तथा रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया। [ श्री वर्धमानस्वामी ने कहा ]- इसी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! हमारा जो साधु अथवा साध्वी पांच महाव्रतों को फोड़ने वाला ( इन्द्रियों के वशीभूत होकर नष्ट करने वाला ) होता है। वह इसी जन्म में भोगवतिका के समान श्रमणादियों के द्वारा तिरस्कार का पात्र होता है । इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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