Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 262
________________ रोहिणिया सुहा ] भाग ३ : सङ्कलन [ २३७ तए णे घण्णं सत्यवाहे उज्झियं सवहसावियं करेइ, करिता एवं वयासी - किं णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ? तए णं उज्झिया घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी - तए णं मम इमेयारूवे अन्भतिथए जाव समुप्पज्जित्थ । – एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि० सम्म संजुत्ता । तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अन्ने । तए णं से घण्णे उज्झियाए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म आसुरते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झिइयं तस्स मित्तनाइ० चउन्ह सुण्हाणं कुलधरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स झारुज्झियं ततः खलु धन्यः सार्थवाहः उज्झितां शपथशापितां करोति, कृत्वा एवमवदत् - किं खलु पुत्रि ! एते एव पञ्च शाल्यक्षताः, उदन्ये ? ततः खलु उज्झिता धन्यसार्थवाहमेवमवदत् -- ' तात ! तदा खलु मम [ मनसि ] एतद्रपः आध्यात्मिको [ विचारः ] यावत् समुदपद्यत — एवं खलु तावानां ( तातस्य श्वशुरस्य ) कोष्ठागारे० स्वकर्मसंयुक्ता । तस्मात् नो खलु तात ! त एव पञ्च शाल्यक्षताः, एते खल्वन्ये । ततः खलु सो धन्यः उज्झिताया अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा, निशम्य आशुरुप्तः ( शीघ्रकोपान्वितः ) यावत् मिसमिसन / क्रोधाग्निना जाज्वल्यमान: ) उज्झितां तस्य मित्रज्ञातिप्रभृते: ० चतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य च पुरतः तां तस्य in तदनन्तर धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को सौगन्ध दिलाई, सौगन्ध दिलाकर इस प्रकार कहा -- पुत्री ! क्या ये वही पाँच चावल के दाने हैं अथवा दूसरे हैं ? तदनन्तर उज्झिका ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा - 'हे पिता जी ! उस समय मेरे मन में इस प्रकार का विचार हुआ कि पिता जी के कोष्ठागार में बहुत चावल हैं जब माँगेंगे तब दे दूंगी, ऐसा विचारकर मैंने वह दाने फेंक दिए और अपने कार्य में लग गई । अतएव हे पिता जी ! ये वही चावल के दाने नहीं हैं अपितु दूसरे हैं । अनन्तर उज्झिका से यह अर्थ सुनकर कुद्ध हुआ तथा क्रोधित होकर मिसमिसाते हुए उसने उज्झिका को उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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