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२४० ] प्राकृत-दीपिका
[ अर्धमागधी अक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलया। तए णं से धणे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी-कि णं पुत्ता! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, उदाहु अण्णे ?' ति । तए णं रक्खिया धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-'ते चेव ताया ! एए पंच सालिअक्खया, णो अन्ने ।' कह णं पुत्ता ?' ___एवं खल ताओ ! तुब्भे इओ पंचमम्मि संवच्छरे जाव भवियव्वं गच्छति, उपागत्य मञ्जूषां विघटयति ( उद्घाटयति ), विघटय्य रत्नकरण्डकात् तान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव धन्य: सार्थवाहस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पञ्चशाल्यक्षतान् धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्ते ददाति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहो रक्षितामेवमवदत्-किं खलु पुत्रि । त एवैते पञ्चशाल्यक्षता उदाहु ( अथवा ) अन्ये इति । ततः खलु रक्षिता धन्यं सार्थवाहमेवमवदत्-'त एव तात ! एते पञ्चशाल्यक्षताः, नो अन्ये ।' [धन्य आह]'कथं खलु पुत्रि?'
[ रक्षिता प्राह ]-एवं खलु तात ! यूयमितः पञ्चमे संवत्सरे यावत् भवितव्यमत्र [ केनापि ] कारणेन इति कृत्वा तान् पञ्चशाल्यक्षतान् शुद्ध वस्त्रे [ बद्ध्वा रत्नकरण्डके निक्षिप्य उच्छीर्षकमूले स्थापयित्वा ] त्रिसन्ध्यं वह वहाँ गई जहाँ उसका निवास गृह था, वहाँ जाकर मञ्जूषा खोली, खोलकर रत्न की डिबिया में से वे पांच चावल के दाने लिए, लेकर जहाँ धन्य सार्थवाह था वहाँ गई, आकर धन्य सार्थवाह के हाथ में वे पाँच चावल के दाने दे दिए। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! क्या ये वही पाँच चावल के दाने हैं अथवा दूसरे हैं ? तब रक्षिका ने धन्य सार्थवाह से कहा-'हे पिता जी ! ये वही पांच चावल के दाने हैं, दूसरे नहीं हैं।' धन्य के पूछा-'पुत्री ! कैसे ?
__ रक्षिका ने कहा---'हे पिता जी ! आपने इससे अतीत पाँचवें वर्ष में पाँच चावल के दाने दिए थे तो मैंने विचार किया कि इसमें कोई कारण होना चाहिए, ऐसा विचार करके इन पांच दानों को शुद्ध वस्त्र में
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