Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 259
________________ २३४] प्राकृत-दीपिका [ अर्धमागधी सुपरिकम्मियं करेह । करित्ता इमे पंच सालिअक्खए बावेह. बावेत्ता दोच्चं पि तच्चं पि उक्खयनिक्खए करेह, करेत्ता वाडिपक्खेवं करेह, करित्ता सारखेमाणा संगोवेमाणा अणपुव्वेणं संवड्ढेह । तए णं अणुपुग्वेण च उत्थे वासारत्ते बहवे कुभंसया जाया। तए णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्थाएवं खलु मम इओ अईए पंचमे संवच्छरे च उण्हं सुण्हाणं परिक्षणट्ठयाए ते पंच सालिअक्खया हत्थे दिना. तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जाणामि ताव काए किहं सारक्खिया वा संगोविया वा संवड्ढिया रूपेऽप्काये भूमौ) निपतिते सति क्षुल्लकं (क्षुद्रक) केदारं (क्षेत्रम्) सुपरिमितं (वपनयोग्यम्) कुरुत । कृत्वा इमान् पञ्चशाल्यक्षतान् वपत, उप्त्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि उत्खातनिहतान् कुरुत । कृत्वा (रोपयित्वा) वाटिकापरिक्षेपं कुरुत, कृत्वा संरक्षन्त संगोपायन्त अनुक्रमेण संवर्धयत । ततः खलु अनुक्रमेण चतुर्थे वरात्र चातुर्मास्यकाले) बहूनि कुम्भशतानि जातानि । ततः खलु तस्य धन्यस्य पञ्चमे संवत्सरे परिणम्यमाने सति पूर्वरात्रापररायकालसमये एतद्र प: आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-एवं खलु मया इतः अतीते पञ्चमे संवत्सरे चतसृणां स्नुषाणां परीक्षणार्थाय ते पञ्चशाल्यक्षता हस्ते दत्ता, 'हे देवानुप्रियो ! तुम इन पाँच चावलों को ग्रहण करो, ग्रहण करके पहली वर्षा ऋतु में महावृष्टि होने पर एक छोटी सी क्यारी को अच्छी तरह साफ करना, साफ करके इन पाँच दानों को बो देना, बोने के बाद दूसरी और तीसरी बार उत्क्षेप और निक्षेप करना, पश्चात् क्यारी के चारों ओर बाड़ लगाना, बाड़ लगाकर इनकी रक्षा और संगोपना करते हुये अनुक्रम से बढ़ाना । अनन्तर अनुक्रम से चतुर्थ वर्षाकाल में सैकड़ों कुम्भ-प्रमाण चावल ( शालि ) हो गये। __ अनन्तर जब पाँचवाँ वर्ष चल रहा था तब धन्य सार्थवाह को मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ 'मैंने इससे पूर्व के अतीत पाँचवें वर्ष में चारों पुत्रवधुओं को परीक्षा करने के लिए पाँच चावल के दाने हाथ में दिए थे तो कल सूर्योदय के होने पर वे पाँच चावल के दाने वापिस मांगना मेरे लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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