Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 258
________________ रोहिणिया सुण्हा ] भाग ३ : सङ्कलन [ २३३ तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता ऊसीसामले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझं पडि जागरमाणी विहरइ। ___ तए णं से धण्ण सत्थवाहे तहेव चउत्थिं रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता जाव 'तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं, त सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवड्ढेमाणीए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संहिता कुलघरपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एए पंच सालिअक्खए गेहह, गेण्हित्ता पढमपाउसंसि महावुट्ठिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं पञ्चशाल्यक्षतान् शुद्ध वस्त्र बध्नाति, बध्वा रत्नकरण्डिकायां प्रक्षिपति, प्रतिक्षिप्य उच्छीर्षकमूले स्थापयति, स्थापयित्वा त्रिसंध्यं प्रतिजाग्रती विहरति । ततः खलु स धन्यः सार्थवाहः तथैव चतुर्थी रोहिणिकां स्नुषां शब्दयति, शब्दयित्वा यावत् (यथा रक्षिका तथैव रोहिणिकापि चिन्तयति); 'तस्माद्धवितव्यमत्र कारणेन, तद् श्रेयः खलु मम एतान् पञ्चशाल्यक्षतान संरक्षात्या: संगोपायन्त्याः संवर्द्ध यन्त्याः ' इति कृत्वा एवं . संप्रेक्षते । संप्रेक्ष्य कुलगृहपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत---यूयं खलु हे देवानुप्रियाः ! एतान् पञ्चशाल्यक्षतान गृहणीत, गृहीत्वा प्रथमप्रावृषि महावृष्टि काये (महावृष्टिरूपेण जलराशिकोई कारण होना चाहिये ।' उसने इस प्रकार विचार किया और विचार करके वे पाँच चावल के दाने शुद्ध वस्त्र में बाँधे; बाँधकर रत्नों की डिबिया में रख लिये, रख कर सिरहाने के नीचे स्थापित किया, स्थापित करके तीनों सन्ध्या के समय उनकी देखभाल करती हुई रहने लगी। ___अनन्तर, धन्य सार्थवाह ने उसी प्रकार चौथी पुत्रवधू रोहिणिका को बुलाया, [ रक्षिका के समान रोहिणिका के मन में भी विचार हुआ कि इसमें कोई कारण होना चाहिये ] अतएव मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि इन पांच चावलों का संरक्षण करते हुये, संगोपन करते हुये संवर्धन करूं।' ऐसा विच र करके अपने कुलगृहवग के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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