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२३२] प्राकृत-दीपिका
[ अर्धमागधी त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता ते पंच सालिअक्खए एगते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था ।
एवं भोगवईयाए वि, णवरं सा छोल्लेइ, छोल्लित्ता अणुगिलइ, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया। एवं रक्खियाए वि, णवरं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था- एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तणाइ० चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सद्दावेत्ता एवं वयासी--'तुम णं पुत्ता ! मम हत्थाओ जाव पडिदिज्जाएज्जासि' त्ति कटु मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयइ, पञ्चशाल्यक्षतान् एकान्ते एडति ( प्रक्षिपति ), प्रक्षिप्य स्वकर्मसंयुक्ता जाता चाप्यभवत् ।
एवं भोगवतिकामपि० ; केवलं सा तुषरहितं करोति, निष्तुषीकृत्य अनुगिलति ( भक्षयति ), अनुगिल्य ( भक्षयित्वा ) स्वकर्मसंयुक्ता जाता । एवं रक्षितामपि ; केवलं गृहणाति, गृहीत्वा एवं रूपः आध्यात्मिको यावत् [संकल्पः ] समुदपद्यत-एवं खलु मां तात एतेषां मित्रज्ञातिप्रमुखाणां पुरतः चतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य च पुरतः शब्दयित्वा एवमवादीत्- 'त्वं खलु हे पुत्रि ! मम हस्ताभ्यां यावत् प्रतिदद्या: इति कृत्वा मम हस्ते पञ्चशाल्यक्षतान् ददाति, तस्माद्भवितव्यमत्र कारणम्' इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तान् दूसरे चावल लेकर दे दूंगी।' इस प्रकार विचार करके उसने उन पाँच चावलों को एकान्त में डाल दिया और डालकर अपने कार्य-व्यापार में लग गई।
इसी प्रकार भोगवतिका को भी [बुलाकर पांच चावल के दाने दिये]; विशेष यह है कि उसने वे दाने छोले और छीलकर खा गई, खाकर अपने काम में लग गई । इसी प्रकार रक्षिका को भी [ बुलाकर पांच चावल के दाने दिये ] विशेष यह है कि उसने के लिये तथा लेने पर यह विचार आया-'मेरे पिता ने मित्र, जाति आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष बुलाकर यह कहा है कि 'पुत्री ! तुम मेरे हाथ से ये पाँच चावल के दाने लो, यावत् जब मैं माँगू तो लौटा देना, यह कहकर मेरे हाथ में पांच चावल के दाने दिये हैं, तो यहाँ
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