Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 255
________________ २३० ] प्राकृत-दीपिका [ अर्धमागधी तओ पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए चउन्हीं य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धितं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव सक्कारेइ सम्माणेइ । सक्कारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइयपमुहाग्गे उन्हय सुहाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेव्हइ, हित्ता जेट्ठा सुहा उज्झिइया तं सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी तुमं णं पुत्ता ! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए गेव्हा हि, गेव्हित्ता अणुपुवेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया गं अहं पुत्ता ! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया पं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए ततः पश्चात् स्नातो भोजनमण्डपे सुखासननिषण्णो मित्रज्ञातिप्रभृतीनां चतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्गेण च सार्द्धं तद्विपुलमशनं पानं खाद्य स्वाद्य च भोजयित्वा यावत्सत्कारयति [ वस्त्रादिभिः ], सम्मानयति [ मधुरवचनादिभिः ] | सत्कारयित्वा सम्मानयित्वा च तस्यैव मित्रज्ञातिप्रमुखाग्रे चतसृणां स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य पुरतः पञ्च शात्यक्षतान् गृहणाति, गृहीत्वा ज्येष्ठां स्नुषां उज्झिकां शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत् - 'हे पुत्रि ! त्वं खलु मम हस्तादिमान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृहाण, गृहीत्वा च अनुपूर्व्या ( अनुक्रमेण ) संरक्षन्ती संगोपायन्ती विहर। हे पुत्र ! यदा खलु अहं भवद्भयः इमान् पञ्चशात्यक्षतान् Jain Education International -- इसके बाद स्नान करके भोजन मण्डप में सुखासन पर बैठा । पश्चात् मित्र, ज्ञाति आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य पदार्थोंों का भोजन कराकर [ वस्त्रादि के द्वारा ] उनका सत्कार किया तथा [ मधुर वचनों आदि से ] सम्मान किया । सत्कार करके और सम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञाति आदि के सामने तथा चारों वधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष पाँच चावल के दाने लिये लेकर बड़ी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया, बुलाकर कहा - 'हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से पाँच चावल के दाने लो, लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संगोपन करती हुई रहो । हे पुत्री ! जब मैं तुमसे इन पाँच चावल के दानों को माँगू तब तुम ये पांच चावल के दाने मुझे वापिस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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