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रोहिणिया सुहा ]
भाग ३ : सङ्कलन
[ २३१
पडिदिज्जा एज्जासि' ति कट्टु सुहाए हत्थे दलयइ, दलइत्ता पडिवि - सज्जेइ |
तए णं सा उज्झिया धण्णस्स तह त्ति एयमठ्ठे पडिसुणेइ, पडसुणित्ता धण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेव्हित्ता एगंतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अब्भतिथए जाव समुप्प - ज्जेत्था--' एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सइ, तया णं अहं पल्लंत राओ अन्ने पंच सालि अक्खए गहाय दाहामि'
याचये तदा खलु त्वं मम इमान् पञ्च शाल्यक्षतान् प्रतिदद्या:' इति कृत्वा [ ज्येष्ठाया: ] स्नुषाया हस्ते ददाति दत्वा च प्रतिविसर्जयति ।
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ततः खलु सा उज्झिका धन्यस्य एतमर्थं ' तथेति' प्रतिशृणोति (स्वीकरोति), प्रतिश्रुत्य धन्यस्य सार्थवाहस्य हस्तात् तान् पञ्चशात्यक्षतान् गृह्णाति गृहीत्वा एकान्तम पक्रामति, एकान्तमपक्रमितायाः एवं रूपः आध्यात्मिको यावत् [ संकल्प: ] समुदपद्यत - ' एवं खलु तातस्य ( श्वशुरस्य) कोष्ठागारे [ शालिभिः ] बहवः पत्यकाः प्रतिपूर्णाः तिष्ठन्ति । तस्मात् यदा खलु मम तातः ( श्वसुरः ) इमान् पञ्चशात्यक्षतान् याचयिष्यति, तदा खल्वहं पल्लान्तरादन्यान् पञ्चशाल्यक्षतान् गृहीत्वा दास्यामि' इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य ( पर्यालोच्य ) तान् लौटाना।' इस प्रकार कहकर बड़ी पुत्रवधू के हाथ में दाने दिये और देकर विदा किया ।
तदनन्तर उस उज्झिका ने 'ऐसा ही हो' इस प्रकार कहकर धन्य सार्थवाह के इस अर्थ ( आदेश ) को स्वीकार किया, स्वीकार करके धन्य सार्थवाह के हाथ से उन पाँच चावल के दानों को ग्रहण किया, ग्रहण करके एकान्त में चली गई, एकान्त में चले जाने पर उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ' इस प्रकार निश्चय ही पिता जी के कोष्ठागार में चावलों से भरे हुये बहुत से पल्य हैं, अतः जब पिता जी मुझसे ये पाँच खावल माँगेंगे तब मैं दूसरे पल्य से
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