Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 240
________________ कल्लाणमित्तो] भाग ३ सङ्कलन [ २१५ अम्हे कुलवइणा भवओ च उरासमगुरुस्स, सुकयधम्माधम्मववत्यस्स सरीरप उत्तिपग्यिाणनिमित्तं पेसिया । एवं सोऊण संपयं तुमं पमाणं ति । राइणा भणियं-कहिं सो भयवं ! 'कुलवइ' त्ति । तेहिं भणियंइओ नाइदूरे सुपरिओसनामे तवोवणे त्ति। तओ य सो राया भतिकोउगेहि गओ तं तवोवणं ति । किट्ठा य तेण तत्थ बहवे तावसा कुलवइ य । तओ संजायसंवेगेण जहारिहमभिवन्दिया। उवविठ्ठो कुलवइसमीवे, ठिओ य तेण सह धम्मकहावावारेण कंचि कालं। तओ भणिओ य णेण सविणयं पण मिकण भयवं कुलवई । जहा करे हि मे पसायं सयलपरिवारपरिगओ मम कूलपतिना भवतश्चतुराश्रमगुरोः सुकृतधर्माऽधर्मव्यवस्थस्य शरीरप्रवृत्तिपरिज्ञाननिमित्तं प्रेषितौ । एवं श्रुत्वा साम्प्रतं त्वं प्रमाण मिनि । राज्ञा भणितमकुत्र स भगवन् ! कुलपति: ? इति । ताभ्यां भणितम्-इतो नातिदूरे सुपरितोषनाम्नि तपोवने इति । ततश्च स राजा भकिन-कौतुकाभ्यां गतस्तत् तपोवनमिति । दृष्टाश्च तेन तत्र बहवस्तापसाः, कुलपतिश्च । ततः संजातसंवेगेन यथार्हमभिवन्दिताः। उपविष्टः कुलपतिसमीपे, स्थितश्च तेन सह धर्मकथाव्यापारेण कंचित् कालम् । ततो भणितश्चानेन सविनयं प्रणम्य भगवान् कुलपतिः । यथा कुरु मम प्रसादं सकलआश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास) के मान्य, धर्म और अधर्म की समीचीन व्यवस्था करने वाले आपके शरीर व्यापार का कुशल समाचार जानने के लिए हमें भेजा है।' राजा ने कहा-'वे भगवान् कुलपति जी कहाँ हैं' ? उन्होंने कहा- 'यहाँ से थोड़ी दूर पर ही सुपरितोष नामक तपवन में हैं।' इसके पश्चात् वह राजा भक्तिभाव एवं कुतूहलवश उस तपोवन में गया। वहाँ उसने बहुत से तपस्वियों और कुलपति को देखा । इसके बाद उत्पन्न हुए संवेगभाव ( धर्म के प्रति आकर्षण ) से उसने यथोचित रूप से उनकी वन्दना की। वह कुलपति जी के पास में बैठा और उनके साथ धर्म-सम्बन्धी वार्तालाप करता हुआ कुछ समय तक रुका। पश्चात् कुलपति को विनयपूर्वक प्रणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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