Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 252
________________ उवएसपया ] भाग ३ : सङ्कलन १६. मरीरमाहु नावत्ति जीवो वुच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वत्तो जं तरंति १७. जहा पोम्मं जले जायं नोवलिप्पइ एवं अलित्तं कामेहि तं वयं बूम १८. न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण महेसिणो ।। २३.७३ ।। वारिणा । माहणं ।। २५.२७ 1 बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण ण तावसो ।। २५.३१ ।। १९. समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण मुणी होइ तवेण होइ तावसो ।। २५.३२ ।। १६. शरीरमा हुनरिति, जीव उच्यते नाविकः । संसारोऽर्णव उक्तः, बं तरन्ति महर्षयः ॥ १७. यथा पद्मं जले जातं, नोपलिप्यते वारिणा । एवमलिप्तं कार्मः, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् || १८. नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः, न ओंकारेण ब्राह्मणः । न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापसः ॥ १९. समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥ [ २२७ १६. शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक कहा जाता है तथा संसार को समुद्र कहा गया है जिसे महाषिजन पार करते हैं । १७. जैसे कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नहीं होता है वैसे ही जो कामभोगों से अलिप्त होता है उसे ही हम ब्राह्मण कहते हैं । १८. सिर मुँड़ा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप कर लेने. मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता और कुशा के वस्त्र धारण करने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता है । १९. समता से श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि तथा तप से तपस्वी होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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