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प्राकृत-दीपिका
[ चतुर्दश अध्याय
कुछ विद्वान् जैन शौरसेनी और नाटकीय शौरसेनी में बहुत अल्प अन्तर देख कर दोनों को एक ही मानते हैं । कुछ विद्वानों ने मागधी और शौरसेनी इन दो प्राकृतों को ही प्राचीन माना है। तदनुसार मागधी का प्रचार काशी के पूर्व में और शौरसेनी का काशी के पश्चिम में था। दक्षिण भारत में भी इसका पर्याप्त प्रसार था। सम्राट अशोक के शिलालेखों ( ई० पू० ३ शताब्दी ) में दोनों के प्राचीन रूप सुरक्षित हैं । प्रमुख विशेषताएं
(१) (नाटकीय शौरसेनी बत) त >द (कहीं कहीं त, य) होता है । जैसेसंयता >संजदी, प्रकाशयति >पयासदि, चेति >चेदि, विगतरागः >विगदरागो, भूतः >भूदो, स्थितिः >ठिदि, जातः >जादो, मतिज्ञानम् >मदिणाणं, सुविदितः >सुविदिदो। त्रिभुवनतिलकम् >तिहुवण तिलयं, सम्प्राप्तिः >संपत्ती, मूर्तिगतः > मुत्तिगदो, विसहते >विसहते । सर्वगतम् >सव्वगयं, भणिता> भणिया, गतम् > गयं, पतितम् >पडियं, महाव्रतम् >महव्वयं ।
( २ ) ( नाटकीय शौरसेनीवत् ) थ>ध होता है जैसे-तथा >तधा, वथम् >कधं ।
(३) (३र्धमागधीवत् ) क>ग ( कहीं कहीं 'क, य' ) होता है। जैसे---स्वकम>सगं, एकान्तेन >एगतेण, साकारः>सागारो, क्षपके > खवगे। चिरकालम् >चिरकालं, अनुकूलम् >अणुकूलं, एकसमये >एकसमयम्हि । सुखकरः>सुहयरो, प्रत्येकं >पत्तेयं, सामायिकम् >सामाइयं, नरकगतिः >णिरयगदी।
(४) 'क, ग' आदि वर्गों के लुप्त होने पर महाराष्ट्रीवत् प्राय: 'य'श्रुति तथा कभी-कभी 'व'श्रुति भी होती है। जैसे-उदरम् > उवरं, मनुजः > मणुवो, बहुकम् >बहुवं, वचनैः>वयणेहिं, गजाः>गया ।
(५) अनुनासिक वर्गों में 'ङ्ज न' का अभाव है । जैसे-जङ्गः> भयंगो, किञ्चित् >किंचि, भिन्नम् >भिष्णं ।
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