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सुहासियाई ] भाग ३ : सङ्कलन
[ १९१ १४. चावो सहावसरलं विच्छिवई सरं गुणम्मि वि पडन्तं ।
वंकस्स उज्जुअस्स अ संबन्धो कि चिरं होई ॥ ५.२४ ॥ १५. खिप्पड हारो थणमंडलाहि तरुणीअ रमणपरिरम्भे ।
अच्चिअगुणा वि गुणिनो लहन्ति लहुअत्तणं काले ।। ५:२९ ।। १६. धूलिमइलो वि पंकङ्किओ वि तणर इअदेहभरणो वि।
तह वि गइन्दो गरुअत्तणेण ढक्कं समुहइ ॥६२६।। १७. दुस्सिखिअरअणपरिक्खएहिँ घिट्टोसि पत्थरे तावा ।
जा तिलमेत्तं वट्टसि मरगअ ! का तुअ मुल्लकहा ॥ ७२७ ।। १४. चापः स्वभावसरलं विक्षिपति शिरं गुणेऽपि पतन्तम् ।
वक्रस्य ऋजुकस्य च सम्बन्धः किं चिरं भवति । १५. क्षिप्यते हार: स्तनमण्डलात तरुणीभिः रमणपरिरम्भे ।
अचितगुणा अपि गुणिनो लभन्ते. लघुत्वं कालेन ॥ १६. धूलिमलिनोऽपि पङ्काङ्कितोऽपि तृणरचितदेहभरणोऽपि ।
तथापि गजेन्द्रो गुरुकत्वेन ढकां समुद्वहति ।। १७. दुःशिक्षित रत्नपरीक्षकष्टोऽसि प्रस्तरे तावत् ।
यावत्तिलमात्रं वर्तसे मरकत ! का तव मूल्यकथा ॥ और भय के समय धैर्यवान् होते हैं। [इस प्रकार वे ] सम (अनुकूल) तथा विषम (प्रतिकूल) परिस्थितियों में एक समान-स्वभाव वाले होते हैं ।
१४. स्वभाव से सरल तथा गुण (प्रत्यञ्चा) में आसक्त वाण को भी धनुष दूर फेंक देता है । वक्र (कुटिल) और सरल (निष्कपट) का सम्बन्ध क्या चिरस्थायी हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ।।
१५. प्रिय के आलिङ्गन के समय गुणी (सूत्र में पिरोया गया) हार भी युवतियों के द्वारा कुचमण्डल से उतारकर फेंक दिये जाते हैं। काल के प्रभाव से गुणी व्यक्ति भी लघुता को प्राप्त हो जाते हैं।
१६. धूलि से धूसरित, कीचड़ से सना हुआ और तिनकों से उदरपूर्ति करता हुआ भी गजराज अपती गुरुता के कारण यश को धारण करता है।
१७. हे मरकतमणि ! अनाड़ी रत्नपरीक्षकों के द्वारा तुम पत्थर पर इतने
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