________________
१९६]
प्राकृत-दीपिका
[जैन महाराष्ट्री
१२. भणइ य महिंदराया, पुबि पि मए सुयं जहा एसा।
पवणंजयस्स वेसा, तेण य गब्भस्स संदेहो ॥ २३ ॥ १३. मा होहिइ अववाओ, मज्झं पि इमाएँ संकिलेसेणं ।
भणिओ य दारवालो, धाडेह लहुं पुरवराओ ॥ २४ ॥ १४. तो दारवालएणं, लद्धाएसेण अञ्जणा तुरियं ।
निद्धाडिया पुराओ, सहीऍ समयं परविएसं ॥ २५ ॥ १५ सुकुमालहत्थपाया खरपत्थर-विसमकण्टइल्लेणं ।
पन्थेण वच्चमाणी अइगरुयपरिस्समावन्ना ।। २६ ॥ १२. भणति च महेन्द्रराजा पूर्वमपि मया श्रुतम् ।
यथा एषा पवनञ्जयस्य द्वेष्या तेन च गर्भस्य सन्देहः । १३. मा भवत्वपवादो मह्यमपि अस्याः कलंकेन ।
भणितश्च द्वारपालो निस्सारय लघु पुरवरतः ॥ १४. ततो द्वारपालेन लब्धादेशेन अञ्जना तुरियं ।
निष्कासिता पुरतः सख्या सह परदेशं ।। १५. सुकुमारहस्तपादखरप्रस्तरविषमकण्टकाकीर्णेन ।
पन्था गच्छन्ती अतिगुरुपरिश्रमापन्ना ।।
१२. इस पर महेन्द्रराजा ने कहा कि पहले भी मैंने सुना था कि यह पवनंजय की द्वेषभाजन है, अत: इसके गर्भ के बारे में सन्देह है ।
१३. इस कलंक से मेरा भी अपमान न हो, ऐसा समझकर उसने द्वारपाल से कहा कि नगर से इसे जल्दी बाहर निकाल दो।
१४. आदेश प्राप्त द्वारपाल ने सखी के साथ अंजना सुन्दरी को तुरन्त ही नगर से बाहर परदेश में निकाल दिया।
१५. तीक्ष्ण पत्थरों एवं कांटों से परिव्याप्त विषम मार्ग से जाते हुए कोमल हाथों एवं पैरों वाली उसे अत्यन्त परिश्रम हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org