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हणुओ जम्मकहा ] भाग ३ : सङ्कलन
[२०३ ४१. उच्छङ्गवट्ठियतणू, बालो दट्टण खिङ्किणीजालं ।
मीणो व्व समुच्छलिउं, पडिओ गिरिणो सिलावट्ठ ॥ ११४ ॥ ४२. दळूण सुयं पडियं, रोयन्ती भणइ अञ्जणा कलुणं
दाऊण निही मज्झं, अच्छीणि पुणो अवहियाणि ।। ११५ ।। ४३. तो सा महिन्दतणया, समयं पडिसुज्जएण अवइण्णा ।
हाहाकारमुहरवा, पेच्छइ य सिलायले बालं ॥ ११६ ।। ४४. निरुवहयङ्गोवङ्गो, गहिओ बालाएँ पर मतुट्ठाए।
पडिसुज्जएण वि तओ, पसंसिओ हरिसियमणेणं ।। ११७ ॥ ४१. उत्सङ्गवर्तिततनुबालो दृष्ट्वा किंकिणीजालम् ।
मीन इव समुच्छलित: पतितो गिरिणः शिलापट्टे । ४२. दृष्ट्वा सुतं पतितं रुदन्ती भणति अञ्जना करुणम् ।
दत्वा निधि मह्यम् अक्षिणी पुनोऽपहृते ।। ४३. तदा सा महेन्द्रतनया सह प्रतिसूर्यकेण अवतीर्णः ।
हाहाकारमुखरवा प्रेक्षते च शिलातले बालम् ।। ४४. निरुपहताङ्गोपाङ्गो गृहीतो बालः परमतुष्ट्या ।
प्रतिसूर्यकेणाऽपि ततः प्रशंसितो हर्षितमनसः ।।
४१. गोद में जिसका शरीर धारण किया हुआ है ऐसा वह बालक किंकिणी के समूह को देखकर मछली की भांति उछला और पहाड़ की शिला पर जा गिरा। ___ ४२. पुत्र को नीचे गिरा हुआ देखकर अंजना करुण स्वर में रोती हुई कहने लगी कि मुझे खजाना देकर फिर आँखें छीन ली हैं !
४३. तब मुख से हाहाकार करती हुई वह महेन्द्रतनया अंजना प्रतिसूर्य के साथ नीचे उतरी और वहाँ शिलातल पर बालक को देखा।
४४. अक्षत अगोपांग वाले उस बालक को अंजना ने आनन्द-विभोर होकर उठा लिया । हर्षित मनवाले प्रतिसूर्य ने भी तब उसकी प्रशंसा की।
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