Book Title: Prakrit Dipika
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 232
________________ साहसिओ बालो] भाग ३ : सङ्कलन [ २०७ भवंति, इमिणा दुक्खेण रुणं' ति । 'राइणा भणियं 'किमेत्थ वियारेण, इमं चेव पुच्छामो' । भणिओ य राइणा 'पुत्त महिंदकुमार ! साहह महं कीस एयं तए रुण्णय' ति । तओ ईसिललिय-महर-गंभीरक्खरं भणियं कुमारेण 'पेच्छह, विहि-परिणामस्स जं तारिसस्स वि तायस्स हरिपुरंदर-विक्कमस्स एयस्स एरिसे समए अहं सत्तुयणस्स उच्छंग-गओ सोयणिज्जो जाओ त्ति । ता इमिणा मह मण्णुणा ण मे तीरइ बाहपसरो रुभिऊणं' ति । तओ राइणा विम्हयाबद्ध-रस-पसर-खिप्पमाणहियएण भणियं । 'अहो, बालस्स अहिमाणो, अहो सावट्ठभत्तणं, अहो वयण-विण्णासो, अहो फुडक्खरालावत्तणं, अहो काजाकज्ज-वियारणं ति । सव्वा विम्हावणीय एयं, जं इमाए वि अवत्याए एरिसो बुद्धिपृच्छामः' । भणितश्च राजा 'पुत्र महेन्द्रकुमार ! कथय मां, कयमेतत् त्वया रुदितम्' इति । तत ईषल्ललित-मधुर-गम्भीराक्षरं भणितं कुमारेण 'प्रेक्ष्य, विधिपरिणामस्य यत् तादृशस्यापि तातस्य हरिपुरन्दरविक्रमस्य एतस्य एतादृशे समये अहं शत्रुजनस्योत्संगगतः शोचनीयो जात इति । ततोऽनेन महा मन्युना न मया तीर्यते वाष्पप्रसरः रोद्ध म्' इति । ततो राज्ञा विस्मयाबद्ध रसप्रस राक्षिप्यमाणहृदयेन भणितम् - 'अहो बालस्य अभिमानः, अहो सावष्टम्भत्वम्, अहो वचनविन्यासः, अहो स्फुटाक्षरालापत्वम्, अहो कार्याकार्यविचारणमिति । सर्वया विस्मयनीयमेतम्, यदेतस्याप्यवस्थायामीदृश बुद्धिविस्तारो वचनविन्यासश्च' ने कहा--'पुत्र महेन्द्रकुमार ! मुझसे कहो तुम क्यों रोये ?' इसके बाद ईषत् सुन्दर, मधुर और गम्भीर वाणी से कुमार ने कहा--'सूर्य और इन्द्र के समान पराक्रमी उस पिताजी का पुत्र होकर भी भाग्य के विपरीत परिणाम के कारण मैं शत्रु की गोद में बैठा हुआ शोचनीय अवस्था को प्राप्त हो गया है। इसीलिए अत्यधिक क्रोध के आवेग के कारण आँसुओं को न रोक सका। इसके बाद राजा ने आश्चर्यचकित होकर कहा--'बालक का अभिमान आश्चर्यजनक है। साहस आश्चर्यजनक है । वाणी का विलास आश्चर्यजनक है। स्पष्ट वाणी में बोलना आपचर्यजनक है। कार्य और अकार्य का विचार आश्चर्यजनक है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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