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प्राकृत दीपिका
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२०. घेत्तूण बालयं सा, उच्छङ्ग े
अञ्जणा रुयइ मुद्धा |
किं वच्छ ! करेमि तुहं, एत्थारणे अपुण्णा हं ? ।। ९१ ।। २१. एस पिया ते पुत्तय ! अहवा मायामहस्स य घरम्मि । जइ तुज्झ जम्मसमओ, होन्तो वि तओ महानन्दो ।। ९२ ॥ २२. तुज्झ पसाएण अहं, पुत्तय ! जीवामि नत्थि संदेहो ।
पइसयणविप्पमुक्का, जुहपणट्ठा मई चैव ॥ ९३ ॥ २३. भणइ यं वसन्तमाला सामिणि छड़ हि परिभवं सव्वं । नय होइ अलियवयणं, जं पुव्वं मुणिवराइट्ठ ।। ९४ ।।
२०. गृहीत्वा बालकं सा उत्सङ्गे अञ्जना रोदिति मुग्धा किं वत्स ! करोमि तव एतादृशारण्ये अपुण्याऽहं ॥ २१. एष पितुस्ते पत्रक ! अथवा मातामहस्य च गृहे । यदि तव जन्मसमयो भवेदपि तदा महानन्दः || सन्देहः ।
२२. तव प्रसादेन अहं पुत्रक ! जीवामि नास्ति
पतिस्वजनविप्रमुक्ता
यूथप्रणष्टा
मृगीव ॥
२३. भणति च वसन्तमाला स्वामिनि ! परित्यज परिभवं सर्वम् ।
न च भवति अलीकवचनं यत् पूर्वं मुनिवरादिष्टम् ॥
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[ जैन महाराष्ट्री
२०. बालक को गोद में धारण करके वह मुग्धा अंजना रोती थी कि हे वत्स ! अपुण्यशाली मैं इस अरण्य में तेरे लिए क्या करूँ ?
२१. हे पुत्र ! पिता के अथवा मातामह के घर में तेरा यह जन्मोत्सव होता तो बहुत आनन्द छा जाता ।
२२. हे पुत्र ! तेरे प्रसाद से ही पति एवं स्वजन से मुक्त मैं यूथ से परिभ्रष्ट हिरनी की भाँति जी रही हूँ ।
२३. इस पर वसन्तमाला ने कहा कि हे स्वामिनी ! ऐसी समस्त ग्लानि का परित्याग करो । मुनिवर ने पहले जो कुछ कहा है वह असत्य कथन नहीं होगा ।
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