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________________ प्राकृत दीपिका १९८ ] २०. घेत्तूण बालयं सा, उच्छङ्ग े अञ्जणा रुयइ मुद्धा | किं वच्छ ! करेमि तुहं, एत्थारणे अपुण्णा हं ? ।। ९१ ।। २१. एस पिया ते पुत्तय ! अहवा मायामहस्स य घरम्मि । जइ तुज्झ जम्मसमओ, होन्तो वि तओ महानन्दो ।। ९२ ॥ २२. तुज्झ पसाएण अहं, पुत्तय ! जीवामि नत्थि संदेहो । पइसयणविप्पमुक्का, जुहपणट्ठा मई चैव ॥ ९३ ॥ २३. भणइ यं वसन्तमाला सामिणि छड़ हि परिभवं सव्वं । नय होइ अलियवयणं, जं पुव्वं मुणिवराइट्ठ ।। ९४ ।। २०. गृहीत्वा बालकं सा उत्सङ्गे अञ्जना रोदिति मुग्धा किं वत्स ! करोमि तव एतादृशारण्ये अपुण्याऽहं ॥ २१. एष पितुस्ते पत्रक ! अथवा मातामहस्य च गृहे । यदि तव जन्मसमयो भवेदपि तदा महानन्दः || सन्देहः । २२. तव प्रसादेन अहं पुत्रक ! जीवामि नास्ति पतिस्वजनविप्रमुक्ता यूथप्रणष्टा मृगीव ॥ २३. भणति च वसन्तमाला स्वामिनि ! परित्यज परिभवं सर्वम् । न च भवति अलीकवचनं यत् पूर्वं मुनिवरादिष्टम् ॥ Jain Education International [ जैन महाराष्ट्री २०. बालक को गोद में धारण करके वह मुग्धा अंजना रोती थी कि हे वत्स ! अपुण्यशाली मैं इस अरण्य में तेरे लिए क्या करूँ ? २१. हे पुत्र ! पिता के अथवा मातामह के घर में तेरा यह जन्मोत्सव होता तो बहुत आनन्द छा जाता । २२. हे पुत्र ! तेरे प्रसाद से ही पति एवं स्वजन से मुक्त मैं यूथ से परिभ्रष्ट हिरनी की भाँति जी रही हूँ । २३. इस पर वसन्तमाला ने कहा कि हे स्वामिनी ! ऐसी समस्त ग्लानि का परित्याग करो । मुनिवर ने पहले जो कुछ कहा है वह असत्य कथन नहीं होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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