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हणुओ.जम्मकहा ]
भाग ३ : सङ्कलन
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८. लद्धाएसेण तओ, समयं सहियाए अञ्जणा तुरियं । ___ जागम्मि समारूढा, महिन्दनयरामुहं नीया ।। 4॥ ९. संपत्ता य खणेणं, पावो मोत्तण पुरवरासन्ने ।
खामेऊण नियत्तो, ताव य अत्थंगओ सूरो ।। ९ ॥ १०. सूरुग्गमम्मि तो सा सहीऍ समयं कुलोचियं नयरं ।
पविसन्ती दीणमुही पडिरुद्धा दारवालेणं ।। १६ ॥ ११. अह सो वि दारवालो सिलाकवाडो त्ति नाम गन्तूणं ।
तं चेव वयणनिहसं महिन्दरायस्स साहेइ ॥ १८ ॥ ८. लब्धादेशेन ततः समकं (सह) सख्या अञ्जना तुर्यम् ।
याने समारूढा महेन्द्रनगरमुखं नीता ॥ सम्प्राप्ता च क्षणेन पापी मुक्त्वा पुरवरासन्ने ।
आज्ञाप्य निवृत्तः तदा च अस्तंगतः सूर्यः ।। १०. सूर्योदये सा सख्या सह कुलोचितं नगरं ।
प्रविशन्ती दीनमुखी प्रतिरुद्धा द्वारपालेन । ११. अथ सोऽपि द्वारपाल: शिलाकपाट इति नाम गत्वा ।।
तमेव वचननिखिलं महेन्द्र राज्ञे श्रावयति ।।
८. तब आज्ञा मिलने पर अंजना अपनी सखी के साथ जल्दी ही सवारी में जा बैठी। वह महेन्द्रनगर की ओर ले जाई गई।
९. थोड़ी ही देर में वह वहाँ पहुँच गई। नगर के समीप वह पापी नौकर उसे छोड़कर और क्षमा मांगकर लौट गया। उस समय सूर्य भी अस्त हो गया था।
१० सूर्योदय के होने पर सखी के साथ अपने कुलोचित नगर में प्रवेश करती हुई दीनमुखी वह द्वारपाल के द्वारा रोकी गई।
११. इसके बाद उस शिलाकपाट नाम के द्वारपाल ने जाकर यह समस्त वृत्तान्त महेन्द्र राजा को सुनाया।
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