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प्राकृत-दीपिका
[ महाराष्ट्री
१८. एक्केण वि वडवीअंकरेणं सअलवणराइमज्झम्मि ।
तह तेण कओ अप्पा जह सेसदुमा तले तस्स ॥७७० ।। १९. जे जे गुणिनो जे जे अ चाइणो जे विडड्ढविण्णाणा।
दारिद्द रे ! विअक्खण ताणं तुमं साणुराओ सि ॥ ७७१ ।। २०. धण्णा बहिरा अन्धा ते च्चिअ जीअन्ति माणुसे लोए।
ण सुणन्ति पिसुणवअणं खलाण ऋद्धि ण पेक्खन्ति ॥ ७।९५ ॥
१८. एकेनापि वटबीजाकरेण सकलवनराजिमध्ये ।
तथा तेन कृत आत्मा यथा शेषद्र मास्तले तस्य ।। १९. ये ये गुणिनो ये ये च त्यागिनो ये विदग्धविज्ञानाः ।
दरिद्रय रे विचक्षणः ! तेषां त्व सानुरागोऽसि ।। २०. धन्या बधिरा अन्धास्त एव जीवन्ति मानुषे लोके ।
न शृण्वन्ति पिशुनवचनं खलानामृद्धि न पश्यन्ति । घिसे गये हो कि अब तिलमात्र रह गये हो । तुम्हारे मूल्य की बात ही क्या ? अर्थात् इतना परखे जाने पर भी अनाड़ी जौहरी तुम्हारा मूल्यांकन नहीं कर सके।
१८. वटबीज के अकेले एक अङ्कर ने अपने को समस्त वनराजि के मध्य में इस प्रकार प्रसारित किया कि शेष सभी वक्ष उसके तल भाग में आ गये अर्थात् इस अन्योक्ति के द्वारा किसी नवयुवक की उन्नति व्यङ्गय है।
१९. हे दारिद्रय ! तुम बहुत चतुर हो क्योंकि जो गुणी हैं, जो त्यागी हैं और जो प्रकाण्ड पण्डित हैं तुम उन्हीं से अनुराग करते हो ।
२०. मनुष्य लोक में अन्धे और बहरे लोग धन्य हैं, वे ही वास्तव में जीवित हैं क्योंकि वे न तो पिशुनों के वचन सुनते है और न दुष्टों की समृद्धि को देखते हैं।
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