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प्राकृत - दीपिका
[ महाराष्ट्री
१०. तुङ्गो चित्रअ होइ मणो मणंसिणो अन्तिमासु वि दसासु । अत्थमम्मि विरहणो किरणा उद्धं चित्र फुरन्ति ॥ ३८४ ॥ ११. पोट भरन्ति सउणा वि माउआ अप्पणी अणुव्विग्गा ।
विहलुद्धरणसहावा हुवन्ति जइ के वि सप्पुरिसा ।। ३८५ ।। १२. दढरोसकलुसिअस्स वि सुअणस्स मुहाहिँ विपि कन्तो ।
राहुमुहम्म विससिणो किरणा अमअं विअ मुअन्ति ॥४-१९|| १३. वसणम्मि अणुव्विग्गा विश्वम्मि अगव्विआ भए धीरा । होन्ति अहिष्णसहावा समेसु विसेमेसु सप्पुरिसा ॥ ४८० ॥
१०. तुङ्गमेव भवति मनो मनस्विनोऽन्तिमास्वपि दशासु । अस्तमनेऽपि रवेः किरणाः ऊर्ध्वमेत्र स्फुरन्ति ।।
११. उदरं भरन्ति शकुना अपि हे मातर ! हे सख) आत्मनोऽनुद्विग्नाः । विह्वलोद्धरण स्वभावा भवन्ति यदि केऽपि सत्पुरुषाः ।। १२. दृढ रोष कलुषितस्यापि सुजनस्य मुखादप्रियं कुतः ? राहुमुखेऽपि शशिन: किरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति ॥ १३. व्यसनेऽनुद्विग्ना विभवेऽगविता भये धीराः । समेषु विषमेषु सत्पुरुषाः ।।
भवन्त्यभिन्नस्वभावाः
१०.
मनस्वी का हृदय अन्तिम अवस्थाओं ( मरणासन्न दशाओं ) में भी उन्नत ही रहता है । अस्त होते हुए भी सूर्य की किरणें सदा ऊपर की ओर ही स्फुरित होती हैं ।
११. हे सखि ! बिना किसी उद्विग्नता के पक्षी भी अपना पेट भर लेते हैं परन्तु यदि कोई सज्जन होते हैं तो वे आपत्ति ग्रस्त लोगों का उद्धार करने के स्वभाव वाले होते हैं अर्थात् सज्जन की प्राप्ति दुर्लभ है ।
१२. अत्यधिक क्रोध से कलुषित होते हुए भी सज्जन के मुख से अप्रिय वचन कहाँ ? राहु के मुख में होने पर भी चन्द्रमा की किरणें अमृत ही बरसाती हैं ।
१३. सत्पुरुष विपत्ति में उद्विग्न नहीं होते हैं, वैभवता में गर्व नहीं करते हैं
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