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प्राकृत-दीपिका
[ महाराष्ट्री
४. सुअणो ण कुप्पइ विअ अह कुप्पइ विपि ण चिन्तेइ ।
अह चिन्तेइ ण जम्पइ अह जम्पइ लज्जिओ होइ ॥३.५० ॥ ५. सो अत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं णिरन्तणं वसणे ।
तं रुअं जत्थ गुणा तं विण्णाणं जहिं धम्मो ।। ३.५१ ॥ ६. अउलीणो दोमुहओ ता महरो भोअणं मुहे जाव ।
मुरओ व्व खलो जिण्णम्मि भोअणे विरसमारसई ॥ ३.५३ ॥ ४. सुजनो न कुप्यत्येव अथ कुप्यति विप्रियं न चिन्तयति ।
अथ चिन्तयति न जल्पति यदि जल्पत्ति लज्जितो भवति॥ ५. सोऽर्थो यो हस्ते तन्मित्रं यनिरन्तरं व्यसने ।
तद्र पं यत्र गुणास्तद्विज्ञानं यत्र धर्मः ।। ६. अकुलीनो द्विमुखस्तावन्मधुगे भोजनं मुखे यावत् ।
मुरज इव खलो जीर्णे भोजने विरसमारसति ।।
४. ( सामान्य रूप से ) सजन पुरुष कुपित ही नहीं होता, यदि कुपित भी होता है तो अप्रिय नही सोचता है । यदि अप्रिय सोचता भी है तो कहता नहीं है और यदि कहता है तो लज्जित होता है ।
५. धन वही है जो हाथ में हो, मित्र वही है जो आपत्ति में सदा साथ देवे, रूप वही है जिसमें गुण हो और विज्ञान वह है जिसमें धर्म हो ।
६. जिस प्रकार अकुलीन (अ+कु-पृथिवी+लीन-जो पृथिवी पर नहीं रखा जाता ) द्विमुख तबला (तबले के दो हिस्से ) तभी तक मधुर ध्वनि करता है, जब तक उसके मुख पर भोजन ( लेप ) विद्यमान रहता है, भोजन ( लेप ) के जीणं होते ही वह बेसुरा हो जाता है । उसी प्रकार अकुलीन, (नीच कुलोत्पन्न ) द्विमुख (सामने कुछ, पीछे कुछ कहने वाला) दुर्जन ( खल ) व्यक्ति सभी तक मधुर वचन (प्रशंसा या चाटुकारी का वचन) बोलता है जब तक उसके मुख में भोजन रहता है। भोजन के जीर्ग हो जाने पर ( कार्य निकल जाने पर ) रसहीन ( कटुभाषी या निन्दक ) हो जाता है ।
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