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पउअकव्वमाहत्त]
भाग ३ : सङ्कलन
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६. गाहाण रशा महिलाण विब्भमा कइयणाण उल्लावा ।
कस्स न हरंति हिययं बालाण य मम्मणुल्लावा ॥ १३ ॥ ७. गाहाणं गीयाणं तंतीसद्दाणं पोढमहिलाणं ।
ताणं चिय सो दंडो जे ताण रसं न याति ॥ २१॥ पाइयकवम्मि रसो जो जायइ तह य छेयभणिएहि । उययस्य य वासियसीयलस्स तित्ति न वच्चामो ॥२०॥ ललिए महरक्खरए जुवईयणवल्लहे ससिंगारे ।
संते पाइयकव्वे को सक्कइ सक्कयं पढिउं ॥ २९ ॥ ६. गाथानां रसा महिलानां विभ्रमा कविजनानामुल्लापाः ।
कस्य न हरन्ति हृदयं बालानां मन्मनुल्लापाः ।। ७. गाथानां गीतानां तन्त्रीशब्दानां प्रौढमहिलानाम् ।
तासामेव सो दण्डो ये तेषां रसं न जानन्ति । ८. प्राकृतकाव्ये रसो यो जायते तथा च छकभणितैः ।
उदकस्य च वासितशीतलस्य तृप्ति न व्रजामः ।। ललिते मधुराक्षरके युवतिजनवल्लभे सशृङ्गारे । सति प्राकृतकाव्ये कः शक्नोति संस्कृतं पठितुम् ॥
६. प्राकृत-गाथाओं के रस, स्त्रियों के हावभाव, कवियों के काव्य-वचन तथा बालकों के अव्यक्त वचन किसके हृदय को आकर्षित नहीं करते हैं ? अर्थात् सभी के लिए अच्छे लगते हैं।
७. प्राकृत-गाथायें, गीत, तन्त्री के शब्द तथा प्रौढ महिलायें ये उनके लिए दण्ड स्वरूप हैं जो उनके रस को नहीं जानते हैं।
८. प्राकृत-काव्य में तथा विदग्ध (चतुर ) पुरुषों के वचनों में जो रस होता है उससे तृप्ति नहीं होती है, जैसे सुवासित और शीतल जल से मन तृप्त नहीं होता है।
९. ललित ( सुन्दर ), मधुराक्षरों से युक्त, युवतियों को प्रिय तथा शृङ्गार रस से परिपूर्ण प्राकृत-काव्य के मौजूद रहने पर कौन संस्कृत पढ़ने का प्रयत्न करेगा? अर्थात् कोई नहीं।
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