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१७८] प्राकृत-दीपिका
[ महाराष्ट्री (२) सरअवण्णणं' १. तो हरिवइजसवंथो राहवजीअस्स पढमहत्थालम्बो ।
सीआबाहविहाओ दहमुहवज्झदिअहो उवगओ सरओ।। १६ ।। २. रइअरकेसरणिवह सोहइ धवलब्भदलसहस्सपरिगअं ।
महुमहदंसणजोग्गं पिआमहुप्पत्तिपंकअं व णहअलं ॥ १७ ॥ धुअमेहमहुअराओ घणसमआअड्ढिओणअ-विमुक्काओ। णहपाअव-साहाओ णिअअट्ठाणं व पडिगआओ दिसाओ ।। १९ ॥
___संस्कृत-छाया ( शरद्वर्णनम् ) १. ततो हरिपतियशःपथो राघवजीवस्थ प्रथमहस्तालम्बः ।
सीताबाष्पविघातो दशमुखवध्यदिवस उपगता शरत् ।। १६ ॥ २. रविकर केसरनिवहं शोभते धवलाभ्रदलसहनरिगतम् ।
मधुमथनदर्शनयोग्यं पितामहोत्पत्तिपङ्कजमिव नभस्तलम् ॥१७॥ ३, धुतमेधमधुकरा . घनसमयाकृष्टावनतविमुक्ताः । नभः पादपशाखा निजकस्थानमिव प्रतिगता दिशः ॥ १९ ॥
हिन्दी अनुवाद (शरद् ऋतु वर्णन) १. [वर्षा ऋतु के पश्चात्, सुग्रीव (हरिपति) के यशोमार्ग के समान, राम के प्रथम हस्तावलम्ब के समान तथा सीता के आँसुओं का अन्त करने वाले रावण के वध दिवस के समान शरद् ऋतु आ गई ।
२. आकाश ब्रह्मा के उत्पत्तिस्थानभूत कमल के समान शोभित हो रहा है जिसमें सूर्य की किरणें ही केशर हैं, सफेद मेवों के हजारों खण्ड ही दल हैं तथा जो भगवान् विष्णु या राम (मधुमथन) के दर्शन के योग्य है ।
३. दिशाएँ मानों अपने स्थान को प्राप्त हो गई हैं जो वर्षाकाल में आकाशरूपी वृक्ष की शाखाओं के समान झुक गई थीं परन्तु अब (शरद् ऋतु में) मुक्त हो गई हैं। जिनके बादल रूपी भौरे उड़ गये हैं। १. प्रवरसनकृत, सेतुबन्ध (रावणवध) के प्रथम आवास से उद्धृत
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