________________
संज्झावण्णणं ] भाग ३ : सङ्कलन
[१८५ ४. आयव-किलन्त-महिसच्छि-कोणसोणायवं दिणन्तम्मि ।
उव्वत्तइ रविणो भू-कलम्ब-पुड-पाडलं बिम्बं ।।१०८८।। ५. संज्झालत्तय-धरियम्मि उअह जलणोवलेव्व रवि-बिम्बे ।
णिव्वडइ धूमलेहव्व मासला जामिणी-च्छाया ॥१०८९।। ६. जायं व धूम-संचय-कलुसारुण किरण-दन्तुरं रविणो।
तिमिरोवयार-मुज्झन्त-विसम-संज्झायवं बिम्बं ।। १०९० ॥
४. आतपक्लान्तमहिषाक्षिकोणाशोणात दिनान्ते ।
उद्वर्तते रवे कदम्बपुटपाटलं बिम्बम् ।। १. सन्ध्यालक्तकधृते पश्यत ज्वलनोपल इव रविबिम्बे ।
निवर्तते धूमलेखेत्र मांसला यामिनीच्छाया ।। ६. जातमिव धूमसंचयकलुषारुणकिरणदन्तुरं रवः ।
तिमिरोपचार मुह्यमानविषमसन्ध्यातपं बिम्बम् ।।
रूपी बकुल वृक्ष (आयासकेसर) नक्षत्ररूपी फलों से लद गया है। (बकुल वृक्ष युवति के द्वारा मदिरा का कुल्ला करने से विकसित होता है, ऐसी कविसमयप्रसिद्धि है)।
४. धूप से क्लान्त भैंसे की आँख के कोण के समान रक्ताभ तथा पृथ्वीस्थ कदम्बवृक्ष के पुष्प के समान पाट लवर्ग वाले सूर्य का बिम्ब अस्त हो रहा है ।
५. सन्ध्यारूपी महावर को धारण किए हुए अग्निपाषाण-पूर्यकान्तमणि (जलणोवल) के समान सूर्यबिम्ब को देखो जिससे घूमरेखा के समान घनीभूत रात्रि रूपी कान्ति (छाया) निकल रही है । 'संज्झालया' (संध्यालता) पाठ होने पर 'संध्या रूपी लता-दाह्य लकड़ी' अर्थ होगा।
६. अन्धकार के आगमन से मन्द तथा विषम (मिश्रित) सन्ध्यातप वाग सूर्यबिम्ब धमसंचय मे कलुष तथा अरुण किरणों के द्वारा मानों रोमाञ्चित हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org