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प्राकृत-दीपिका
[ महाराष्ट्री
(४) संशावण्णणं' १. सेलग्ग-खण-विहता रवि-वडण-कमेण दूरमुच्छलिया।
घम्म च्छेया इव तारअत्तणं एन्ति मलिन्ता ।। १०८५ ।। २. एन्ति गह-मोत्तियज्ढे पओस-सीहाहए दिणेहम्मि ।
रहसिअ-ट्ठिय रुहिराअम्ब-कुम्भ करणि रवि-मियंका ॥ १०८६ ।। ३. जामवई-मुह-भरिए संज्झा-मइराइ दिणयराहारे।
आगास-केसरं दन्तुरेन्ति णक्खत्त-कुसुमाइं ।। १०८७ ।।
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संस्कृत-छाया ( सन्ध्यावर्णनम् ) १. शैलाग्रक्षणविभक्ता रविपतनक्रमेण दूरमुच्छलिताः ।
घर्मन्छेदा इव तारकत्वं यन्ति मुकलीभवन्तः ।। २. एत: ग्रहमौक्ति काड़ये प्रदोषसिंहाहते दिनेभे ।
हसितस्थितरुधिराताम्रकुम्भसादृश्यं रविमृगाको । यामवतीमुखभरिते सन्ध्यामदिरया दिनकराधारे । आकाशकेसर दन्तुरयन्ति नक्षत्रसुमानि ।।
हिन्दी अनुवाद ( सन्ध्या वर्णन ) १. सूर्य जब पर्वत के शिखरभाग पर स्थित था उस समय उसकी किरणे दिशाओं में विभक्त थीं परन्तु जब सूर्य क्रमशः समुद्र में गिरने लगा ( अस्त होने लमा) तो उसकी किरणें मुकुलित होकर दूर आकाश में उछल कर तारों के समूह को प्राप्त हो गई।
२. प्रदोष रूपी सिंह के द्वारा ग्रह रूपी मोतियों से परिपूर्ण दिनरूपी हाथी के मार दिए जाने से पतित एवं रुधिर से आरक्त गजकुम्भ के सदश सूर्य और चन्द्रमा उपस्थित हो गये हैं।
३. रात्रिरूपी युवति के द्वारा किये गये सन्ध्यारूपी मदिरा के कुल्ला से मस्त होता हुआ सूर्यरूपी बालबाल (माधार) जिसका भर गया है ऐसा आकाश १. बागपतिराजकृत 'गउउवहो' नामक ऐतिहासिक-काव्य से उद्धत ।
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