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समुद्दवण्णणं ]
भाग : ३ सङ्कलन
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८ चडुलं पि थिईअं थिरं तिअसुक्खित्तरअणं पि सारब्भहिअं । महिअं पि अणोलुग्गं असाउसलिलं पि अमअरसणीसंदं ॥ १८ ॥ ९. परिअम्भि उवगए बोलीणम्मिश्र णिअत्तचडुलसहावं । णवजोव्वणेव्व कामं दइअसमागमसुहम्मि चंदुज्जोए ॥ २० ॥ १० कपणमणिच्छाआरस रज्जं तो वरिपरिपवंतप्फेणं । हरिणाहिपंकअक्खल असे सणीसासज णिअविअडावत्तं ॥ २८ ॥
८. चटुलमपि स्थिना स्थिरं त्रिदशोत्क्षिप्तरत्नमपि साराभ्यधिकम् । मथितमप्यनत्र रुग्णमस्वादुसलिलमप्यमृत रस निः स्यन्दनम् ॥ १८ ॥ ९. परिजृम्भितमुपगते व्यतिक्रान्ते निवृत्तचटुलस्वभावम् । raataafna कामं दयितसमागमसुखे चन्द्रोदयते ॥ २० ॥ १०. कृष्णमणिच्छायारस राज्य मानोपरिप्लवमानफेनम् । हरिनाभिपङ्कजस्खलित शेष निःश्वासजनित त्रिकटावर्तम् ॥ २८ ॥
८. यह समुद्र चञ्चल होने पर भी मर्यादा के कारण स्थिर है, देवताओं के द्वारा रत्नों के निकाल लिए जाने पर भी अनन्त धनराशि से पूर्ण (रत्नाकर) है, मथे जाने पर भी अविनष्ट तथा खारे जल वाला ( लवणाकर ) होने पर भी मृत रस का झरना है ।
९. प्रिय समागम के सुख से युक्त नवयौवन में काम ( काम ज्वर रूपी लता) के समान यह समुद्र चन्द्रमा के उदिन होने पर बढ़ता है तथा बस्त होने पर उसकी चञ्चलता शान्त हो जाती है । यौवन के आने पर काम विकार बढ़ता है तथा उसके बीतने पर शान्त हो जाता है ।
१०. इन्द्रनीलमणि के कान्ति रूपी नीलाभ रंग से अभिरञ्जित झाम जिस समुद्र के ऊपर तैर रहा है ( इससे समुद्रतल में विद्यमान नीलमणियों का उद्दाम तेज तथा जल की स्वच्छता व्यङ्गय है ) तथा शेषनाग के निःश्वास से विष्णु की नाभि के कमल के स्खलित होने से (जिस समुद्र के रूप में) भयङ्कर भंवर वाला बन गया है ।
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